Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
उक्त कथन का विशेषार्थ यह है कि एकेन्द्रिय के चार और शेष अपर्याप्तक जीवों के पांच जीवस्थान कुल मिलाकर नौ जीवस्थानों में सामान्य से एक काययोग होता है । वह इस प्रकार कि सूक्ष्म और बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों के औदारिक काययोग तथा सूक्ष्म बादर-अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों के औदारिकमिश्र काययोग होता है । कुछ आचार्यों के अभिप्राय से बादर वायुकायिक पर्याप्तकों के वैक्रिय काययोग और बादर वायुकायिक अपर्याप्तकों के वैक्रियमिश्र काययोग भी होता है और शेष द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीसंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तों के यथायोग्य एकमात्र औदारिकमिश्र आदि काययोग होता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक इन चारों जीवस्थानों में औदारिक काययोग और असत्यामृषावचनयोग ये दो-दो योग होते हैं।
__ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थान में चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और सातों काययोग इस तरह पन्द्रह योग होते हैं । यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के जो अपर्याप्त दशा में सम्भन औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र और कार्मण काययोग बतलाये गये हैं सो इनमें से सयोगि जिन के केवलिसमुद्घात की अपेक्षा औदारिकमिश्र काययोग और कार्मण काययोग कहा गया है तथा जो औदारिक काययोगी जीव वैकिय और आहारक लब्धि प्राप्त करते हैं उनकी अपेक्षा वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण काययोग बतलाया गया है। अन्यथा मिश्रकाययोग अपर्याप्त दशा में
और कार्मण काययोग विग्रहगति में ही सम्भव है । ____ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के कार्मण काययोग को छोड़कर शेष चौदह योग जानना चाहिये । कार्मण काययोग न मानने का कारण अपने वर्तमान भव के शरीर में विद्यमान जीवों में योग मानना है। यह आपेक्षिक कथन है । कार्मण काययोग भी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान की अवस्थाविशेष में सम्भव है। यह कथन ऊपर किया जा चुका है। अतः पन्द्रह योग भी सम्भव हैं।
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