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पंचसंग्रह (१) चार महाव्रत छोड़कर पांच महाव्रत स्वीकार करते हैं, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है तथा मूलगुणों का घात करने वाले साधु को पुनः जो व्रतों का उच्चारण कराया जाता है, उसे सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं।
- छेदोपस्थापनीय चारित्र के ये दोनों प्रकार स्थितकल्प में होते हैं। जिस तीर्थंकर के तीर्थ में चातुर्मास और प्रतिक्रमणादि आचार निश्चित रूप में हो ऐसे प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थकल्प को स्थितकल्प कहते हैं ।
परिहारविशुद्धि चारित्र-परिहार अर्थात् तपोविशेष । जिस तपोविशेष के द्वारा चारित्र का आचरण करने वाले के कर्म की शुद्धि हो, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं । उसके दो भेद हैं-(१) निविशमानक और (२) निविष्टकायिक । विवक्षित चारित्र की तपस्या के द्वारा आराधना करने वाले निर्विशमानक और उसकी आराधना करने वालों के परिचारक निविष्टकायिक कहलाते हैं।
. यह परिहारविशुद्धि चारित्र पालक और परिचारक के बिना आराधित नहीं किये जा सकने के कारण उपर्युक्त नामों से जाना जाता है ।
इस चारित्र को ग्रहण करने वालों का नौ-नौ का समूह होता है । उनमें से धार तपस्यादि करने के द्वारा पालन करने वाले होते हैं, चार परिचारक वैयावृत्य करने वाले और एक वाचनाचार्य होता है ।
यद्यपि इस चारित्र को धारण करने वालों के श्रुतातिशय सम्पन्न होने पर भी उनका आचार होने से एक वाचनाचार्य के रूप में स्थापित किया जाता है।
निविशमानक की तपस्या का क्रम इस प्रकार है
तपस्या करने वाले ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास, शीत ऋतुकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास और वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पांच उपवास करते हैं और पारणे के दिन अभिग्रह सहित आयंबिल व्रत (जिसमें विगय-घी, दूध आदि रस छोड़कर दिन में केवल एक बार अन्न खाया जाता है तथा प्रासुक पानी पिया जाता है) करते हैं ।
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