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औपशमिक सम्यक्त्व-प्राप्ति विषयक प्रक्रिया का
सारांश
____ अनन्तानुबंधि क्रोधादि कषायचतुष्क और दर्शन-मोहत्रिक (सम्यक्त्व मोहनीय, सम्यमिथ्यात्व मोहनीय—मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय), इन सात प्रकृतियों के उपशम होने पर जीव की जो तत्त्वरुचि होती है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इस स्थिति में मिथ्यात्व प्रेरक कर्मदलिक सत्ता में रहकर भी भस्माच्छादित अग्नि की तरह कुछ समय तक उपशांत रहते हैं, किन्तु साधन मिलने पर पुनः अपना रूप प्रकट कर देते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व के दो भेद हैं-ग्रंथिभेदजन्य और उपशमश्रेणिभावी । ग्रंथिभेदजन्य को प्रथमोपशम और उपशमश्रेणिभावी को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी कहते हैं ।
ग्रंथिभेदजन्य औपशमिक सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव को प्राप्त होता है । इसकी प्राप्ति सुदुर्लभ है । तत्सम्बन्धी प्रक्रिया इस प्रकार है
अगाध गम्भीर संसार समुद्र के मध्य में वर्तमान जीव मिथ्यादर्शन मोहनीयादि हेतु से अनाम पुद्गल-परावर्तन पर्यन्त अनेक प्रकार से शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव कर अत्यन्त कठिनाई से यत्किचित् तथाभव्यस्वभाव का परिपाक होने के कारण पर्वतीय नदी के पत्थर के गोल, चौकोर आदि होने के न्याय से कि जैसे पर्वत की नदी का पत्थर टकराते-टकराते, घिसटते-घिसटते अपने आप गोल, चौरस आदि हो जाता है, उसी प्रकार अनाभोगिक-उपयोग बिना के शुभ परिणाम रूप यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा जिसका पूर्व में भेद नहीं किया, ऐसी कर्मपरिणामजन्य तीव्र रागद्वेष परिणाम रूप कर्कश, गाढ और सुदीर्घकाल से रूढ़ गुप्त गांठ जैसी ग्रंथिदेश को प्राप्त करता है।
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