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पंचसंग्रह (१) इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है तथा इस संयम के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा और विहार कर सकते तथा शेष समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि करते हैं ।
दिगम्बर साहित्य में इसके बारे में कुछ मतभेद है कि जन्म से लेकर तीस वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहने के बाद दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व का अध्ययन करने वाले इस संयम को धारण कर सकते हैं। इस संयम के धारक तीन संध्या कालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन कर सकते हैं । तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य किसी के पास से इस संयम को ग्रहण नहीं किया जा सकता है । ___ सूक्ष्मसम्पराय चारित्र --किट्टिरूप किये गये सूक्ष्म लोभकषाय का उदय जिसके अन्दर हो, उसे सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है तथा किट्टिरूप की गई लोभकषाय के अवशिष्ट भाग का यहाँ उदय होता है।
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र के दो भेद हैं-विशुद्धयमानक और संक्लिश्यमानक । क्षपकश्रेणि अथवा उपशमणि पर आरोहण करने पर विशुद्धयमानक होता है। क्योंकि उस समय प्रवर्धमान विशुद्धि वाले परिणाम होते हैं और उपशमश्रेणि से गिरते समय संक्लिश्यमानक होता है। क्योंकि इस समय में पतनोन्मुखी परिणाम होते हैं।
यथाख्यात चारित्र-सर्वजीवलोक में अकषाय चारित्र प्रसिद्ध है। उस प्रकार का जो चारित्र हो उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं । यथाख्यात चारित्र का अथाख्यात यह अपर नाम है। जिसका निरुक्तिपूर्वक अर्थ इस प्रकार हैअथ अर्थात् यथार्थ और आङ् यानी अभिविधि-मर्यादा। अतएव इस प्रकार का अकषाय रूप जो चारित्र हो वह यथाख्यात चारित्र है। इन दोनों का समान अर्थ यह हुआ कि कषायोदय से रहित चारित्र को अथाख्यात-यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं-(१) छाद्मस्थिक और (२) कैवलिक ।
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