Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 262
________________ योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २ (ख) जीवस्थानों में उपयोग एकेन्द्रियों के बादर-सूक्ष्म और इन दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक कुल चार, द्वीन्द्रि य और त्रीन्द्रिय सम्बन्धी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार तथा चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये तीन, इस प्रकार इन ग्यारह जीवस्थानों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन ये तीन-तीन उपयोग होते हैं । चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक इन दो जीवस्थानों में चक्षुदर्शन सहित पूर्वोक्त तीन उपयोग इस प्रकार चार-चार उपयोग होते हैं । ___ मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के उपर्युक्त (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन) चार तथा सम्यग्दृष्टि संज्ञी अपर्याप्तकों के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक-अवधिज्ञान, अवधिदर्शन ये चार उपयोग होते हैं । इनमें अचक्षुदर्शन मिलाने से पांच भी उपयोग होते हैं। कोई-कोई आचार्य मिथ्यादृष्टि-सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार के संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों को मिलाकर मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये सात उपयोग मानते हैं । - संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थान में बारह उपयोग होते हैं। यह कथन सामान्य से समझना चाहिये । लेकिन विशेषापेक्षा छद्मस्थ और अछद्मस्थ जीवों का भेद किया जाय तो छदमस्थ जीवों में केवल द्विक के बिना दस उपयोग और अछद्मस्थ जीवों के सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन यह दो उपयोग होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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