Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २
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तारतम्य है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में चैतन्य का विकास क्रमशः अधिकाधिक है। इस विकास के तरतमभाव को समझने के लिए जीवों के निम्नलिखित चार विभाग किये जा सकते हैं
(१) अत्यल्प विकास वाले जीव--इस विकास वाले जीव मूच्छित की तरह चेष्टारहित होते हैं । इनकी चेतना अव्यक्त रहती है। इस अव्यक्त चेतना को ओघसंज्ञा कहते हैं । एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले होते हैं।
(२) कुछ व्यक्त चेतना वाले जीव-इस विभाग में विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकाल का स्मरण किया जा सके । इस विकास में आसन्न भूतकाल का ही स्मरण किया जा सकता है, किन्तु सुदीर्घ भूतकाल का नहीं। इष्ट-अनिष्ट विषयों के प्रति प्रवृत्ति-निवृत्ति भी होती है । इस प्रवृत्ति-निवृत्तिकारी ज्ञान को हेतुवादोपदेशकी संज्ञा कहते हैं। इस दृष्टिकोण से द्वीन्द्रियादि चार त्रस जीव संज्ञी हैं और पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावर असंज्ञी हैं।
(३) सुदीर्घकालिक भूत का स्मरण और वर्तमानकालिक निश्चय- इस विभाग में इतना विवक्षित है कि सुदीर्घकाल में अनुभव किये हुए विषयों का स्मरण और उस स्मरण द्वारा वर्तमानकाल के कर्तव्यों का निश्चय किया जाये। यह कार्य विशिष्ट मन की सहायता से होता है। इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशकी संज्ञा कहते हैं । इस संज्ञा के फलस्वरूप सदर्थ के विचारने की बुद्धि, निश्चयात्मक विचारणा, अन्वय-व्यतिरेक धर्म का अन्वेषण-पर्यालोचन तथा भूत-वर्तमान-भविष्यकालीन कार्यपरम्परा की श्रृंखला का ज्ञान कि भूत में यह कार्य कैसे हुआ, वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्य में कैसे होगा? इस प्रकार के विचारविमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की क्षमता प्राप्त होती है । देव, नारक और गर्भज मनुष्य-तिर्यंच दीर्घकालोपदेशकी संज्ञा वाले हैं।
(४) विशिष्ट श्रुतज्ञान-यह ज्ञान इतना शुद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि जीवों के सिवाय अन्य जीवों में यह सम्भव नहीं है । इस विशिष्ट विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशकी संज्ञा कहते हैं ।
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