Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) शास्त्रों में संज्ञी-असंज्ञी के उल्लेख के प्रसंग में ओघ और हेतुवादोपदेशकी संज्ञा वालों को असंज्ञी और दीर्घकालोपदेशकी और दृष्टिवादोपदेशकी संज्ञा वाले जीवों को संज्ञी कहा गया है । क्योंकि संज्ञा अर्थात् मनोविज्ञान और यह मनोविज्ञान रूप संज्ञा ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। अतएव मनोविज्ञान रूप संज्ञा जिनके होती है, वे संज्ञी कहलाते हैं, अन्य संज्ञी नहीं कहलाते हैं।
दिगम्बर साहित्य में भी संज्ञी-असंज्ञी का विचार किया गया है । लेकिन उसमें कुछ अन्तर है । जैसे कि गर्भज तिर्यंचों को मात्र संज्ञी न मानकर संज्ञीअसंज्ञी उभय रूप माना है तथा श्वेताम्बर ग्रन्थों में जो हेतुवादोपदेशकी, दीर्घकालिकी और दृष्टिवादोपदेशकी यह तीन संज्ञा के भेद माने गये हैं, वैसे भेद दिगम्बर ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं। लेकिन तद्गत वर्णन से यह प्रतिभास अवश्य होता है कि संज्ञित्व व्यपदेश के लिये दीर्घकालोपदेशकी और दृष्टिवादोपदेशकी संज्ञा के आशय को ध्यान में रखा गया है।
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