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पंचसंग्रह (१) उत्तर- जैसे शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाले श्रोत्र आदि हैं, वैसा मन नहीं है और सुखादि को साक्षात ग्रहण करने वाला मन है, पर इन्द्रिय नहीं हैं । इसलिये मन सम्पूर्ण इन्द्रिय नहीं परन्तु इन्द्र आत्मा का लिंग होने से इन्द्रिय भी है । यहाँ जो पांच ही पर्याप्तियां कही हैं, वे बाह्यकरण की अपेक्षा से जानना चाहिए, मन अन्तःकरण है, इसलिये मनपर्याप्ति पृथक् नहीं कही है। इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है । दोनों प्रकार से मनपर्याप्ति सम्भव है । यहाँ तैजस् और कार्मण शरीर सहित आत्मा की ही विवक्षित क्रिया की परिसमाप्ति यानी विवक्षित क्रिया करने में समर्थ करण की उत्पत्ति, यह पर्याप्ति है। औदारिक आदि शरीर की प्रथम उत्पत्ति की अपेक्षा ही यहाँ पर्याप्तियों का विचार किया है ।
यह पर्याप्तियां एक साथ आरम्भ होकर अनुक्रम से पूर्ण होती हैं । क्योंकि उत्तरोत्तर पर्याप्तियां अधिक-अधिक काल में समाप्त होती हैं ।
भाष्यकार के अनुसार आहारपर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार है
'शरीरेन्द्रिय-वाङ्-मनः-प्राणापानयोग्यदलिकद्रव्याहरण कियापरिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः ।' शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन और प्राणापान-श्वासोच्छ्वास के योग्य दलिकों-पुद्गलों के आहारण-ग्रहण क्रिया की परिसमाप्ति, वह आंहारपर्याप्ति करणविशेष है । 'गृहीतस्य शरीरतया संस्थापनक्रियापरिसमाप्ति, शरीरपर्याप्तिः'-सामान्य रूप में ग्रहण किये हए पुद्गलों की शरीर रूप में संस्थापना-रचना करने की क्रिया की परिसमाप्ति को शरीरपर्याप्ति कहते हैं । __ प्रज्ञापनासूत्र के टीकाकार आचार्य ने सामान्य से पर्याप्ति की व्याख्या तो की है । किन्तु किन पुद्गलों को ग्रहण करती है, यह स्पष्ट नहीं किया है । लेकिन तत्त्वार्थकार ने आहारपर्याप्ति की व्याख्या में विशेष रूप से शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने का बताया है । प्रथम समय में ग्रहण किये हुए और इसी प्रकार प्रति समय ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों से ही जो करण की निष्पत्ति होती है वह पर्याप्तिशब्दवाच्य है । उससे यह भी प्रतीत होता है कि शरीर के योग्य पुद्गलों से शरीर
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