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पंचसंग्रह (१)
विलक्षण आस्वादन अनुभव में आता है । इस स्थिति का द्योतक यह सासादन गुणस्थान है ।
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३. मिश्र दृष्टिगुणस्थान - सम्यग् —- यथार्थ और मिथ्या - अयथार्थ दृष्टि श्रद्धा है जिसकी उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि और उसके ज्ञानादि गुणों के स्वरूपविशेष को सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान कहते हैं । अर्थात् दर्शनमोहनीय के तीन पुजों -- शुद्ध (सम्यक्त्व), अशुद्ध ( मिथ्यात्व ) और अर्द्धविशुद्ध (सम्य मिथ्यात्व ) में से जब अर्धविशुद्ध पुरंज का उदय हो जाता है, जिससे जिनप्रणीत तत्त्व पर श्रद्धा या अश्रद्धा नहीं होती है' किन्तु गुड़ से मिश्रित दही के स्वाद की तरह श्रद्धा अश्रद्धा मिश्र होती है । इस प्रकार की श्रद्धा वाले जीव को सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं और उसका स्वरूपविशेष मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) गुणस्थान कहलाता है ।
इस गुणस्थान में श्रद्धा ( रुचि), अश्रद्धा ( अरुचि ) न होने का कारण यह है जीव मिश्रगुणस्थान में पहले और चौथे इन दोनों गुणस्थानों
१ मिथ्यात्वमोहनीय के एकस्थानक और मंद द्विस्थानक रस वाले पुद्गलों को सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं, उनके उदय से जिन वचनों पर श्रद्धा होती है, उस समय आत्मा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होती है । मध्यम द्विस्थानक रस वाले मिध्यात्व के पुद्गलों को मिश्रमोहनीय कहते हैं । उनके उदय से जिनप्रणीत तत्त्व पर श्रद्धा या अश्रद्धा नहीं होती है और तीव्र द्वि, त्रि और चतुः स्थानक रस वाले पुद्गल मिथ्यात्वमोहनीय कहलाते हैं । उनके उदय से जिनप्रणीत तत्त्व के प्रति अरुचि ही होती है । उक्त तीन पुजों में से जब अर्ध विशुद्ध पुंज का उदय होता है तब उसके उदय से जीव को अरिहंतभाषित तत्त्व की अर्धविशुद्ध श्रद्धा होती है । अर्थात् जिनप्रणीत तत्त्व के प्रति रुचि या अरुचि नहीं होती है, तब सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान प्राप्त होता है ।
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