Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २६
१७६
सहकृत हैं तो मिथ्यादर्शन कहलायेंगे और सम्यक्त्व सहित हैं तो सम्यग्दर्शन । इन दोनों में जीवस्थानों के विचार का प्रमुख सूत्र यह है कि 'दुसु नाणदंसणाई' - ज्ञान - सम्यग्ज्ञान और दर्शन - सम्यग्दर्शन दो जीवभेदों-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त में संभव है, अन्य जीवभेदों में संभव नहीं है, लेकिन 'सव्वे अन्नाणिणो' अर्थात् अज्ञान में सभी चौदह जीवस्थान हो सकते हैं ।
अब संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान की विशेषता बतलाते हैं कि अयोगित्व, अवेदित्व और 'आई' - आदि शब्द से इनके ही समकक्ष अलेश्यत्व, अकषायत्व, अनिन्द्रियत्व आदि भाव मात्र 'सन्निम्मि' संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में ही संभव हैं, शेष में नहीं । परन्तु यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि ये सब भाव मनुष्यगति में ही प्राप्त हो सकेंगे, अन्यत्र सम्भव नहीं है ।
संज्ञी पर्याप्त जीवस्थान में अयोगित्व आदि भावों की प्राप्ति का संकेत करने पर जिज्ञासु पूछता है कि
प्रश्न - सूक्ष्म, बादर योग के बिना अयोगित्व में संज्ञीपना कैसे घट सकता है । अर्थात् जब अयोगि दशा में योग ही नहीं है तो फिर संज्ञी कहे जाने का क्या आधार है ?
उत्तर - उक्त प्रश्न का समाधान यह है कि सयोगिकेवलि की तरह द्रव्यमन का सम्बन्ध होने से अयोगि को भी संज्ञी व्यपदेश होता है ।" जैसा कि सप्ततिकाचूर्णि में कहा है
मणकरणं केवलिणो वि अत्थि तेण सन्निणो मन्नंति ।
केवली को भी मनकरण - द्रव्यमन होने से संज्ञी कहा जाता है । अर्थात् द्रव्यमन की अपेक्षा रखकर अयोगिदशा में संज्ञित्व मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है । "
असंज्ञी' कहलाते हैं । जिसका स्पष्टीकरण
१ केवली भगवान 'नो संज्ञी नो गाथा ३२ में किया गया है ।
२ दिगम्बर साहित्य में भी अयोगिकेवली अवस्था में द्रव्यमन के सम्बन्ध से
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