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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३०
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___ अतएव प्रत्येक मार्गणा में यथायोग्य गुणस्थानों की योजना स्वबुद्धि से कर लेना चाहिये । तथा
जा बायरो ता वेएसु तिसु वि तह तिसु य संपराएस । लोभंमि जाव सुहुमो छल्लेसा जाव सम्मोत्ति ॥३०॥
शब्दार्थ-जा-जब तक, बायरो-बादर, ता-तब तक, वेएसुवेदों में, तिसु-तीन, वि-भी, तह-तथा, तिसु-तीनों में, य-और, संपराएसुकषायों में, लोमंमि-लोभ में, जाव-तक, सुहुमो-सूक्ष्मसंपराय, छल्लेसा-छह लेश्या, जाव-तक, सम्मोत्ति-अविरत सम्यग्दृष्टि ।
गाथार्थ--जब तक बादर कषायें हैं तब तक के गुणस्थान तीन वेद और तीन कषायों में होते हैं । अर्थात् तीन वेद और तीन कषायों में बादरसंपराय तक के गुणस्थान होते हैं । लोभ में सूक्ष्म संपराय तक के और छह लेश्याओं में अविरतसम्यग्दृष्टि तक के गुणस्थान पाये जाते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में वेद, कषाय और लेश्या मार्गणा के कमशः तीन, चार और छह भेदों में गुणस्थानों का निर्देश किया है। .
वेदमार्गणा के पुरुष, स्त्री और नपुंसक तथा कषायमार्गणा के क्रोध, मान और माया इन तीन-तीन भेदों में जब तक बादर कषायें (तीव्र शक्ति वाली कषायें) रहती हैं, वहाँ तक के गुणस्थान समझ लेना चाहिए । बादर कषायों का उदय पहले मिथ्यात्व से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नौवें गुणस्थान तक रहता है । अतः पहले से लेकर नौवें तक के नौ गुणस्थान वेदत्रिक और कषायत्रिक में समझना चाहिए।'
१ वेद के तीन भेदों में नौ गुणस्थान द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं किन्तु भाववेद
की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि वेद देशघाती है और वह सर्वघाती कषायों के क्षयोपशम से प्राप्त गुण का घात नहीं करता है। परन्तु सर्व
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