Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) भी प्राप्ति हो जाने के बाद परिणामशुद्धि में कुछ न्यूनता आने पर अशुभ लेश्यायें भी आ जाती हैं।'
लेकिन कृष्णादि छहों लेश्याओं में पृथक्-पृथक् गुणस्थानों का विचार किया जाये तो कृष्ण, नील, कापोत इन तीन लेश्याओं में आदि के छह गुणस्थान होते हैं । इनमें से पहले चार गुणस्थान ऐसे हैं, जिन की प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाद भी उक्त तीन लेश्यायें होती हैं और देशविरत, प्रमत्तविरत ये दो गुणस्थान सम्यक्त्वमूलक होने से प्राप्ति के समय शुभ लेश्यायें होती हैं किन्तु तत्पश्चात पारिणामिक शुद्धि में न्यूनता के कारण अशुभलेश्या भी आने से पाँचवाँ और छठा गुणस्थान माने जाते हैं।
तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में आदि के सात गुणस्थान होते हैं। इसका कारण यह है कि ये दोनों लेश्यायें सातों गुणस्थानों को प्राप्त करने के समय और प्राप्ति के पश्चात् भी रहती हैं।
शुक्ललेश्या में मिथ्यात्व से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में योग न रहने से लेश्या का अभाव है। १ (क) सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्त । पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ॥
-आव०नियुक्ति ८५२ -~- सम्यक्त्व की प्राप्ति सब लेश्याओं में होती है, किन्तु चारित्र की प्राप्ति पिछली तीन लेश्याओं में होती है और चारित्र प्राप्त होने के बाद छह में से कोई लेश्या हो सकती है । (ख) सम्यक्त्व देशविरति सर्वविरतीनांप्रतिपत्ति कालेषु शुभलेश्यात्रयमेव, तदुत्तरकालं तु सर्वा अपि लेश्याः परावर्तन्तेऽपीति ।
-पंचसंग्रह, मलय टीका पृ० ४० कहीं-कहीं कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं में जो पहले चार गुणस्थान माने जाते हैं, वे गुणस्थानों की प्राप्ति की अपेक्षा से समझना चाहिये कि उक्तलेश्याओं के समय आदि के चार गुणस्थानों के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।
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