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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३१
मत से है और इसमें भी भिन्नता है । कुछ एक कार्मग्रंथिक आचार्यों ने आदि के दो गुणस्थान और कुछ एक ने तीन गुणस्थान माने हैं । एतदविषयक दोनों का दृष्टिकोण यह है-
अज्ञानत्रिक में आदि के दो गुणस्थान मानने वाले आचार्यों का मत है कि यद्यपि तीसरे मिश्रगुणस्थान के समय शुद्ध सम्यक्त्व - यथार्थ विषय - प्रतिपत्ति न हो किन्तु उस गुणस्थान में मिश्रदृष्टि होने से कुछ न कुछ यथार्थ ज्ञान की मात्रा रहती है । क्योंकि मिश्रदृष्टि में जब मिथ्यात्व का उदय अधिक प्रमाण में हो तब तो अज्ञानांश अधिक और ज्ञानांश अल्प रहता है, किन्तु जब मिथ्यात्व का उदय मंद हो और सम्यक्त्व पुद्गलों का उदय तीव्र रहता है तब ज्ञान की मात्रा अधिक और अज्ञान की मात्रा अल्प होती है । इस प्रकार मिश्र दृष्टि की कैसी भी स्थिति हो, किन्तु उसमें अल्पाधिक प्रमाण में ज्ञान संभव होने से उस समय के ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान मानना उचित है । अतः अज्ञानत्रिक में आदि के दो गुणस्थान मानना चाहिये ।
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अज्ञानत्रिक में आदि के तीन गुणस्थान मानने वाले आचार्यों का मन्तव्य है
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तीसरे गुणस्थान के समय यद्यपि अज्ञान को ज्ञान मिश्रित कहा है, लेकिन मिश्रज्ञान को ज्ञान मानना उचित नहीं है, मानना चाहिये | क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्वविहीन सभी ज्ञान हैं । यदि सम्यक्त्वांश के कारण तीसरे गुणस्थान में ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान मान लिया जाये तो दूसरे गुणस्थान में भी सम्यक्त्व का अंश होने से ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान मानना पड़ेगा । लेकिन यह इष्ट नहीं है । अज्ञानत्रिक में दो गुणस्थान मानने वाले भी दूसरे गुणस्थान में मति आदि को अज्ञान मानते हैं । इसलिये
दिगम्बर आचार्यों ने अज्ञानत्रिक में पहले दो गुणस्थान माने हैं ।
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अज्ञान ही अज्ञान ही
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