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पंचसंग्रह (१) स्थान प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय और आठवें से लेकर ग्यारहवें तक चार गुणस्थान उपशम श्रेणि के समय होते हैं । इसी कारण इन दोनों प्रकार के औपशमिक सम्यक्त्व के कुल मिलाकर आठ गुणस्थान औपशमिक सम्यक्त्व में माने जाते हैं।' __क्षायिक सम्यक्त्व में अविरतसम्यग्दृटि से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त ग्यारह गुणस्थान होते हैं । क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व चौथे आदि गुणस्थान में प्राप्त होता है और प्राप्ति के बाद सदा के लिये रहता है। इसीलिये इसमें चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर चौदहवें अयोगिकेवली पर्यन्त ग्यारह गुणस्थान माने गये हैं और गुणस्थानातीत सिद्धों में तो क्षायिक सम्यक्त्व ही पाया जाता है। मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का निरूपण करने से यहाँ उसका पृथक से संकेत समझना चाहिये । तथा
सम्यक्त्वमार्गणा के उक्त भेदों के अतिरिक्त शेष रहे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यक्त्व और मिश्रसम्यक्त्व भेदों में अपने-अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है। क्योंकि पहला गुणस्थान मिथ्यात्व रूप, दूसरा सासादन रूप और तीसरा मिश्रदृष्टि रूप है। इसीलिए मिथ्यात्व आदि तीनों में अपने नामवाला एक-एक गुणस्थान बताया है। शेष रहे मार्गणास्थान भेद आहारक में गुणस्थान इस प्रकार है
आहारगेस तेरस पंच अणाहारगेसु वि भवति । भणिया जोगुवयोगाणमग्गणा बंधगे भणिमो ॥३४॥
१ दिगम्बर साहित्य में औपशमिक सम्यक्त्व के प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम यह दो भेद करके पृथक्-पृथक गुणस्थान इस प्रकार बतलाये हैंअयदादो पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुगं अप्पमत्तोत्ति ।
गो. जीवकांड गा. ६६४ विदियुवसमसमत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति ।
--गो. जीवकांड गा. ६६५
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