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परिशिष्ट : २
दिगम्बरसाहित्य में अपेक्षाभेद से जीवस्थानों के
भेदों का वर्णन
जैन वाङ्मय में संसार के अनन्त जीवों का गुण, धर्म, स्वभाव, आकारप्रकार, इन्द्रियों आदि की समानता की अपेक्षा वर्गीकरण किया है। लेकिन इस वर्गीकरण की अपनी-अपनी दृष्टि है और उसका कारण है—जीवमात्र में विद्यमान विशेषताओं का सुगमता से वोध कराना । इसीलिये किसी में दृश्यमान शरीर, इन्द्रियों आदि की, किसी में बाह्य शरीर आदि के साथ-साथ उनमें प्राप्त भावों की और किसी में मात्र भावों की मुख्यता है । जिनके नाम क्रमशः जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान हैं। उनमें से पहले यहाँ जीवस्थानों के भेदों का विचार करते हैं । ___ जीवस्थानों के वर्गीकरण में बाह्य शरीर, इन्द्रिय आदि की अवस्थायें मुख्य हैं । इसीलिये जीवस्थान का सामान्य लक्षण बतलाया है कि जिनके द्वारा अनेक जीव एवं उनकी अनेक प्रकार की जातियां जानी जायें, अनेक जीवों का अथवा जीवों की अनेक जातियों का संग्रह किया जाये। अर्थात् त्रस-स्थावर, बादरसूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण इन चार युगलों में से अविरुद्ध त्रसादि कर्मों से युक्त जातिनामकर्म का उदय होने पर जीवों में प्राप्त होने वाले ऊर्ध्वतासामान्य' रूप या तिर्यक्सामान्य रूप धर्मों को जीवस्थान कहते हैं।
शास्त्रों में स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुलों के भेद, इन चार १ एक पदार्थ की कालक्रम से होने वाली अनेक पर्यायों में रहने वाले
समान धर्म को ऊर्ध्वतासामान्य अथवा सादृश्यसामान्य कहते हैं । २ एक समय में अनेक पदार्थगत सादृश्य धर्म को तिर्यक्सामान्य कहते हैं ।
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