Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 238
________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३३ २०१ शब्दार्थ-अपमत्त-अप्रमत्तसंयत, उवसन्त-उपशांतमोह, अजोगिअयोगिकेवली, जाव--तक, सम्वेवि-सभी, अविरयाइया-अविरत से प्रारंभ करके, वेयग-उवसम-खायइदिट्ठी-वेदक (क्षायोपशमिक) उपशम और क्षायिक सम्यग्दृष्टि में, कमसो-क्रम से, मुणेयवा-जानना चाहिये । गाथार्थ-अविरत से प्राम्भ करके अप्रमत्तसंयत, उपशांतमोह और अयोगिकेवली तक के गुणस्थान क्रम से वेदक, उपशम और क्षायिक सम्यग्दृष्टि मार्गणाओं में जानना चाहिये। विशेषार्थ- गाथा में सम्यक्त्वमार्गणा के मुख्य तीन भेदों में गुणस्थान बतलाये हैं और उनमें 'अविरयाइया' अविरत से प्रारम्भ करके अनुक्रम से अप्रमत्तसंयत, उपशांतमोह और अयोगिकेवली गुणस्थानों का सम्बध जोड़ने का संकेत किया है। जिसका स्पष्टीकरण के साथ विवेचन इस प्रकार है-- ____ 'अविरयाइया'-अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति की प्रारम्भिक भूमिका अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थान है । इसी बात का संकेत करने के लिये ग्रंथकार आचार्य ने वेदक सम्यक्त्व आदि में गुणस्थानों की संख्या की गणना चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से प्रारभ की है कि वेदक-सम्यक्त्व यानि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं। क्योंकि यह सम्यक्त्व तभी होता है, जब सम्यक्त्वमोहनीय का उदय हो और श्रेणि-आरोहण के पूर्व तक रहता है । श्रोणि का प्रारंभ आठवें गुणस्थान से होता है और सम्यक्त्वमोहनीय का उदय उससे पूर्व के गुणस्थान-अप्रमत्तसंयत तक रहता है। इसी कारण वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक चार गुणस्थान माने जाते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह - गुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थान होते हैं। इनमें चौथा आदि चार गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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