Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३२
१६६
संज्ञियों में, बार-बारह, केवलि - केवलज्ञानी, नोसन्नी—-नो संज्ञी, नोअसण्णी - नो असंज्ञी, विभी ।
गाथार्थ - अभव्यों में पहला, भव्यों में सभी, असंज्ञियों में दो और संज्ञियों में बारह गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञानी नो संज्ञी नो असंज्ञी हैं ।
विशेषार्थ - - गाथा में भव्य और संज्ञी मार्गणा के भेदों में गुणस्थान बतलाये हैं ।
भव्य मार्गणा के दो भेद हैं- भव्य और अभव्य । इनमें से पहले अभव्य भेद में गुणस्थानों को बताया है कि 'अन्भव्विएस पढमं' - अभव्यों में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । अभव्यों में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान इसलिये माना जाता है कि वे स्वभावतः ही सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता वाले नहीं है और सम्यक्त्व की प्राप्ति के बिना दूसरा आदि आगे के गुणस्थान संभव नहीं हैं, लेकिन 'सव्वाणियरेसु' - अभव्य से इतर - प्रतिपक्षी अर्थात् भव्य मार्गणा में सभी प्रकार के परिणाम संभव होने से सभी गुणस्थान- पहले मिथ्यात्व के लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त चौदह गुणस्थान संभव हैं ।
संज्ञी मार्गणा के संज्ञी और असंज्ञी इन दो भेदों में से असंज्ञी में आदि के दो गुणस्थान होते हैं -- 'दो असन्नीसु' । इसका कारण यह है कि पहला मिथ्यात्वगुणस्थान तो सामान्यतः सभी असंज्ञी जीवों को होता है और दूसरा सासादनगुणस्थान लब्धि पर्याप्त को करण अपर्याप्त अवस्था में पाया जाता है । क्योंकि लब्धि - अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि में कोई जीव सासादन भाव सहित आकर उत्पन्न नहीं होता है । इसीलिये असंज्ञी मार्गणा में पहला, दूसरा ये दो गुणस्थान माने जाते हैं ।
संज्ञी मार्गणा में अंतिम दो -- सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों को छोड़कर शेष पहले से बारह तक बारह गुणस्थान होते हैं- 'सन्नीसु बार' । क्योंकि सयोगिकेवली और अयोगिकेवली संज्ञी नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org