Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३१
१६३
इस प्रकार विशेषता से लेश्याओं में गुणस्थानों का कथन करने के पश्चात् अब शेष रही मार्गणाओं के भेदों में गुणस्थान बतलाते हैं कि
मनोयोग, वचनयोग और काययोग मार्गणाओं में अयोगिकेवली को छोड़कर पहले मिथ्यात्व से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं।' क्योंकि चौदहवें सयोगिकेवलिगुणस्थान में किसी प्रकार का योग न रहने से योग मार्गणा में आदि से तेरह गुणस्थान माने जाते हैं।
ज्ञानमार्गणा के भेद मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मार्गणाओं में चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर्यन्त नौ गुणस्थान होते हैं। क्योंकि सम्यक्त्व-प्राप्ति के पूर्व तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञान रूप होते हैं और अंतिम दो गुणस्थानों में क्षायिक उपयोग होने से इनका अभाव हो जाता है । इसीलिये मति आदि तीन ज्ञानों में अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नौ गुणस्थान माने जाते हैं।
१ मनोयोग आदि में गुणस्थानों का उक्त कथन सामान्य से किया है । उनके अवान्तर भेदों में गुणस्थान इस प्रकार जानना चाहिये
सत्यमन, असत्यामृषामन, सत्यवचन, असत्यामृषावचन, औदारिक काययोग इन पांच योगों में मिथ्यात्व आदि सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान हैं। असत्यमन, मिश्र मन, असत्यवचन, मिश्रवचन इन चार में आदि के बारह गुणस्थान होते हैं। औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवां ये चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रिय काययोग में आदि के सात और वैक्रियमिश्र काययोग में
पहला, दूसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा ये पांच गुणस्थान हैं। ५. आहारक काययोग में छठा, सातवां ये दो और आहारकमिश्र
काययोग में सिर्फ छठा गुणस्थान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org