Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ३१
१९१ स्थानों में, मोसो-मिश्र में, एगो--एक, चउरो-चार, असंजया--असंयत में, संजया-संयत में, सेसा-शेष गुणस्थान ।
गाथार्थ-अपूर्वकरणादि में शुक्ललेश्या होती है। अयोगि में एक भी लेश्या नहीं होती है और शेष गुणस्थानों में तीन लेश्यायें होती हैं । मिश्र में एक, असंयत में चार और शेष गुणस्थान संयत के होते हैं।
विशेषार्थ -- गाथा के पूर्वार्ध में पृथक्-पृथक् लेश्याओं में गुणस्थानों का और उत्तरार्ध में मिश्रसम्यक्त्व मार्गणा एवं संयम, असंयम के भेद से संयममार्गणा में गुणस्थानों का कथन किया है ।
सर्वप्रथम लेश्या-भेदों में गुणस्थान बतलाते हैं कि 'अपुव्वाइसु सुक्का'-अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में शुक्ललेश्या होती है और 'नत्थि अजोगिम्मि'-अयोगिकेवली गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं है। क्योंकि जहाँ तक योग हो वहीं तक लेश्या होती है, किन्तु इस गुणस्थान में योग का अभाव है।
शेष रहे देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्यायें होती हैं। देशविरतादि को ये तीन शुभ लेश्यायें देशविरति और सर्वविरति को प्राप्त करने के समय होती हैं और उनकी प्राप्ति होने के बाद छह लेश्यायें संभव हैं। इसका कारण यह है कि देशविरत आदि ये तीन गुणस्थान सम्यक्त्वमूलक विरतिरूप हैं और इनकी प्राप्ति तेज, आदि शुभ लेश्याओं के समय होती है, कृष्णादि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं होती है । तो
१ यहाँ सर्व विरति शब्द से प्रमत्तसंयत नामक छठा गुणस्थान ग्रहण करना
चाहिए । क्योंकि अप्रमत्तविरत में तो सदैव तीन शुभ लेश्यायें होती है। इस प्रकार लेश्यामार्गणा के छह भेदों में छह गुणस्थान संभव हैं।
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