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पंचसंग्रह (१) मनपर्याय ज्ञान मार्गणा में प्रमत्तसंयत नामक छठे से लेकर क्षीणमोह पर्यन्त सात गुणस्थान हैं । यद्यपि मनपर्यायज्ञान की प्राप्ति तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होती है, किन्तु मनपर्यायज्ञानी प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक पाये जाने से सात गुणस्थान माने हैं।'
केवल द्विक- केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो मार्गणाओं में सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दो गुणस्थान होते हैं। क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों क्षायिक भाव हैं और क्षायिक भाव बे कहलाते हैं, जो तदावरणकर्म के निःशेषरूपेण क्षय होने से सदा-सर्वदा के लिये निरावरण होकर एकरूप रहते हैं। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का क्षय बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में होता है, तब तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है। इसीलिए केवलद्विक में सयोगि और अयोगि केवली अंतिम दो गुणस्थान माने जाते हैं। ___ अज्ञानत्रिक-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान ज्ञानमार्गणा के इन तीन भेदों में मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र ये तीन गुणस्थान होते हैं। लेकिन सिद्धान्त की दृष्टि से विचार किया जाये तो वहाँ सासादन को ज्ञानरूप माना है । अतः अज्ञानत्रिक में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान बतलाया है। यह तीन गुणस्थान मानना कार्मग्रंथिकों के
१ देव और नारकों को स्वभावगत विशेषता से तथा तिर्यंच एकदेश चारित्र
का पालन करने वाले होने से मनपर्यायज्ञान को प्राप्त नहीं करते हैं । मनुष्यों में भी सर्व विरति का पालन करने पर मनपर्यायज्ञान सभी को नहीं होता है किन्तु उन्हीं को पाया जाता है जो कर्मभूमिज, संजी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, गर्भज, सम्यग्दृष्टि, सर्वविरति और प्रवर्धमान चारित्र वाले हैं ।
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