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पंचसंग्रह (१)
'सेसायाइं असंनिम्मि'- अर्थात् पूर्वोक्त पर्याप्त और अपर्याप्त संज्ञी के सिवाय शेष रहे बारह जीवस्थान असंज्ञी मार्गणा में पाये जाते हैं। क्योंकि संज्ञित्व और असंज्ञित्व का भेद पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाया जाता है, लेकिन शेष बारह जीवस्थान असंज्ञी जीवों के ही होते हैं। इसलिए असंज्ञी मार्गणा में बारह जीवस्थान समझना चाहिए।
अब पूर्वोक्त से शेष रही ज्ञानादि मार्गणाओं में जितने जीवस्थान संभव है, उनका प्रतिपादन करते हैं
दुसु नाणदंसणाइं सव्वे अन्नाणिणो य विन्नेया । - सन्निम्मि अयोगि अवेइ एवमाइ मुणेयव्वं ॥२६॥
शब्दार्थ-दुसु-दोनों में, नाणदसणाई-ज्ञान और दर्शन, सम्वेसभी, अन्नाणिणो-अज्ञानियों को, य-और, विन्नेया--जानना चाहिए, सन्निम्मि- संज्ञी में, अयोगि-अयोगि, अवेह--अवेदी, एवमाइ-इत्यादि, मुणयन्वं--समझना चाहिए ।
___ गाथार्थ-ज्ञान और दर्शन दो जीवस्थानों में और अज्ञान सभी जीवस्थानों में जानना चाहिए। अयोगि, अवेदी इत्यादि भाव संज्ञी में समझना चाहिये।
विशेषार्थ-गाथा में ज्ञान और दर्शन मार्गणा के भेदों में जीवस्थानों का विचार करने के प्रसंग में एक सामान्य नियम का निर्देश करते हुए संज्ञी जीवस्थान की विशेषता बतलाई है।
मतिज्ञान आदि पाँच भेदों के साथ मति-अज्ञान आदि तीन को मिलाने से ज्ञानमार्गणा के आठ भेद हैं । अर्थात् ज्ञान मार्गणा के दो वर्ग हैं । प्रथम वर्ग मतिज्ञानादि पांच सम्यक्ज्ञानों का और दूसरा वर्ग मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञानों-मिथ्याज्ञानों का है। यही बात चक्षुदर्शन आदि दर्शनों के लिए भी समझना चाहिए। यदि वे मिथ्यात्व
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