Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये तीन जीवस्थान पाये जाते हैं—'छ तिगं व चक्खुदंसण।' इन दोनों मतों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है____ कतिपय आचार्यों का मत है कि अपर्याप्त अवस्था में भी चक्षुदर्शन हो सकता है। किन्तु इसके लिए इन्द्रिय पर्याप्ति का पूर्ण बन जाना आवश्यक है । क्योंकि इन्द्रिय पर्याप्ति न बन जाये तब आँख के पूर्ण न बनने से चक्षुदर्शन हो ही नहीं सकता है । ___इस कथन का सारांश यह है कि अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जाने के बाद यदि शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त भी हो तो ऐसे अपर्याप्त को चक्षुदर्शनोपयोग हो सकता है । अतः उनके मतानुसार तो पर्याप्त-अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय इस प्रकार चक्षुदर्शन मार्गणा में छह जीवस्थान घटित होंगे।
लेकिन जो इस मत को स्वीकार नहीं करते अर्थात् पर्याप्त अवस्था में ही चक्षुदर्शनोपयोग मानते हैं, उनके मतानुसार पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये तीन जीवस्थान चक्षुदर्शन मार्गणा में माने जायेंगे । इस मत को मानने वालों का दृष्टिकोण यह है कि चक्षुदर्शन आंख वालों के ही होता है और आंखें चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय इन तीन प्रकार के जीवों के पर्याप्त अवस्था में ही होती हैं । इसके सिवाय अन्य प्रकार के जीवों में चक्षुदर्शन का भी अभाव है । अतएव चक्षुदर्शन में तीन जीवस्थान मानना चाहिये।
इन दोनों मतों के मंतव्यों का दिग्दर्शन कराने के लिये ग्रंथकार आचार्य ने गाथा में 'व' शब्द दिया है।
१ चक्षुदर्शन में तीन और छह जीवस्थान मानने का कारण इन्द्रिय पर्याप्ति
की दो व्याख्यायें हैं
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