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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २७
'चउदस ठाणाणि सेस तिगे' - अर्थात् पूर्वोक्त से शेष रहे ज्ञान और दर्शन मार्गणा के तीन भेदों-मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुदर्शन --- में चौदह जीवस्थान होते हैं । मति अज्ञान और श्रुतअज्ञान तो सभी प्रकार के जीवों में संभव होने से माने जा सकते हैं । लेकिन अचक्षुदर्शन में भी सब जीवस्थान मानने पर जिज्ञासा होती है कि अचक्षुदर्शन में जो सात अपर्याप्त जीवस्थान हैं, वे इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात और स्वयोग्य पर्याप्तियाँ अभी पूर्ण न हुई हों, वैसी अपर्याप्त अवस्था की अपेक्षा या इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण
(अ) इन्द्रिय पर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा धातुरूप में परिणत आहार पुद्गलों में से योग्य पुद्गल इन्द्रियरूप से परिणत किये जाते हैं । यह व्याख्या प्रज्ञापना वृत्ति में है । जिसके अनुसार स्वयोग्य संपूर्ण पर्याप्तियाँ पूर्ण होने के बाद ही इन्द्रियजन्य उपयोग प्रवृत्त होता है | अपर्याप्त अवस्था में चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षु होने पर भी उसका उपयोग नहीं होता है । अत: चक्षु दर्शन में तीन जीवस्थान होते हैं ।
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(आ) इन्द्रिय पर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा योग्य आहारपुद्गलों को इन्द्रियरूप में परिणत करके इन्द्रियजन्य बोध का सामर्थ्य प्राप्त किया जाता है । यह व्याख्या बृहत्संग्रहणी तथा भगवती वृत्ति की है | जिसके अनुसार इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात इन्द्रियजन्य उपयोग प्रवृत्त होता है । यानी इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण करली हो किन्तु स्वयोग्य अन्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न भी की हों ऐसे जीव को चक्षु दर्शन हो सकता है । इस अपेक्षा से चक्षु दर्शन में छह जीवस्थान माने जाते हैं ।
दिगम्बर आचार्यों ने चक्ष दर्शन में छह जीवस्थान माने हैं
'चक्षु दर्शने चतुरिन्द्रियाऽसंज्ञि पर्याप्ताऽपर्याप्ताः षढ | अपर्याप्तकालेऽपि चक्षु दर्शनस्य क्षयोपशमसद्भावात्, शक्त्यपेक्षया वा षड्धा जीवसमासा भवन्ति ।
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— पंचसंग्रह ४/१७ टीका
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