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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २७
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पंचेन्द्रिय यह दो जीवस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि ये मतिज्ञान आदि सम्यक्त्वसापेक्ष हैं और सम्यक्त्व संज्ञी में होता हैं, असंज्ञी में नहीं । जिससे मति-श्रुतज्ञान आदि का असंज्ञी में होना असम्भव है तथा कोई-कोई जीव जब मति आदि तीनों ज्ञानों सहित जन्म ग्रहण करते हैं, उस समय उन जीवों के अपर्याप्त अवस्था में भी मति, श्रुत, अवधिद्विक होते हैं । इसीलिए मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक-अवधिज्ञान,अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में अपर्याप्तपर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय यह दो जीवस्थान माने जाते हैं।
'एक मणनाणकेवलविभंगे' अर्थात् मनपर्यायज्ञान, केवल द्विककेवलज्ञान, केवलदर्शन और विभंगज्ञान मार्गणाओं में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप एक जीवस्थान होता है । यहाँ विभंगज्ञान में जो पर्याप्त संज्ञी रूप एक जीवस्थान बताया है, वह तिर्यंच, मनुष्य और असंज्ञी नारक की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच और मनुष्यों को अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान उत्पन्न नहीं होता है तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से जो रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं, उनका असंज्ञी नारक ऐसा नामकरण किया जाता है, उनको भी अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के बाद उत्पन्न होता है। इसी अपेक्षा से विभंगज्ञान में संज्ञी पर्याप्त रूप एक जीवस्थान बताया है। लेकिन सामान्यापेक्षा विचार किया जाये तो विभंगज्ञान मार्गणा में संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त ये दोनों जीवस्थान हो सकते हैं। क्योंकि संज्ञी तिर्यंच, मनुष्यों में से उत्पन्न होते देव नारकों को अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान उत्पन्न होता है ।
चक्षुदर्शन मार्गणा में अपर्याप्त पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय इस प्रकार छह अथवा पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी
१ दिगम्बर साहित्य में विभंगज्ञान में संजीपंचेन्द्रिय पर्याप्त रूप एक जीव
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