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पंचसंग्रह (१)
___शब्दार्थ-सुरनारए सु-देव और नारकों में, चत्तारि-चार, पंचपाँच, तिरिएसु-तिर्यंचों में, चोद्दस-चौदह, मणूसे-मनुष्यों में, इगिविगलेसु-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में, जुयलं-युगल (दो), सव्वाणिसभी, पणिदिसु-पंचेन्द्रियों में, हवंति-होते हैं।
गाथार्थ-देव और नारकों में चार, तिर्यंचों में पांच, मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं तथा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में दो और पंचेन्द्रियों में सभी (चौदह) गुणस्थान जानना चाहिए।
विशेषार्थ-गाथा में गति मार्गणा के चार और इन्द्रिय मार्गणा के पाँच भेदों में प्राप्त गुणस्थानों को बतलाया है ।
देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्य यह गति मार्गणा के चार भेद हैं । उनमें से 'सुरनारएसु चत्तारि'-देव और नारकों में आदि के मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान होते हैं। क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयम धारण करने की शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होने के कारण देव और नारक स्वभाव से ही विरति रहित होते हैं। इसलिए इन दोनों गतियों में प्रथम चार गुणस्थान माने जाते हैं। ___ 'पंच तिरिएसु'-तिर्यंच गति में आदि के पाँच गुणस्थानमिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत होते हैं । क्योंकि जातिस्वभाव से तियंचगति में सर्वविरति तो संभव नहीं, किन्तु देशविरति संयम का पालन किया जा सकता है और आगे के छठे आदि गुणस्थान सर्वविरति के ही होते हैं और सर्वविरति का धारण-पालन सिर्फ मनुष्य गति में हो सकता है। इसीलिए तिर्यंचगति में आदि के पांच गुणस्थान माने जाते हैं।
तियंचगति में पाँच गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में इतना विशेष समझना चाहिए कि गर्भज तिर्यंचों में सम्यक्त्व और देशविरति
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