Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 221
________________ पंचसंग्रह (१) होने के पहले भी अचक्षुदर्शन होता है, यह मान कर । अर्थात् इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद के अपर्याप्तों अथवा इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्णं होने के पहले के अपर्याप्तों को ग्रहण किया किया है । १८४ यदि प्रथम पक्ष माना जाये कि इन्द्रिय पर्याप्ति के पूर्ण होने के बाद स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न हुई हों तो उस स्थिति में सभी जीवस्थान अचक्षुदर्शन में माने जा सकते हैं । लेकिन दूसरा पक्ष माना जाये कि इन्द्रिय पर्याप्त पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुदर्शन होता है तो इस पक्ष में यह प्रश्न होता है कि इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय नहीं होने से उस अवस्था में अचक्षुदर्शन कैसे माना जा सकता है ? इसका समाधान यह है--अचक्षुदर्शन कोई एक इन्द्रियजन्य दर्शन नहीं है, वह नेत्र इन्द्रिय के सिवाय अन्य किसी भी इन्द्रियजन्य दर्शन है । जिससे वह शक्ति रूप अथवा द्रव्य - इन्द्रिय और भाव- - इन्द्रिय दोनों रूपों में अथवा भावेन्द्रिय रूप में होता है । इसी से अचक्षुदर्शन को इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे दोनों अवस्थाओं में माना जा सकता है । जिससे अचक्षुदर्शन में सभी जीवस्थान माने जाने में किसी प्रकार का विवाद नहीं है । सासादनसम्यक्त्व मार्गणा में अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय ये छह और सातवाँ संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त कुल मिलाकर सात जीवस्थान होते हैं । इनमें छह अपर्याप्त और एक पर्याप्त जीवस्थान है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य छह प्रकार के जीवस्थान इसलिए माने जाते हैं कि जब कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव उस सम्यक्त्व को छोड़ता हुआ बादर एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय में जन्म लेता है, तब उसके अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व पाया जाता है । किन्तु कोई भी जीव औपशमिक सम्यक्त्व का वमन करते हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय में पैदा नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 2

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