Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 213
________________ १७६ पंचसंग्रह (१) किन्तु औपशमिक सम्यग्दृष्टि इन चारों में से एक भी कार्य नहीं करता है। . कदाचित् यह कहा जाये कि उपशमश्रेणि का उपशमसम्यक्त्व अपर्याप्त-अवस्था में होता है, तो यह कथन भी योग्य नहीं है । क्योंकि उपशमश्रेणि पर आरूढ जीव यदि वहाँ मरण कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है तो उसको देवायु के पहले समय में सम्यक्त्वमोहनीय के पुद्गलों का उदय होने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, किन्तु औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है । जैसा कि शतकचूणि में संकेत किया है जो उवसमसम्मदिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढम समए चेव सम्मत्त उदयावलियाए छोढूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मदिट्ठी अपज्जत्तगो लब्भइ ति। ___अर्थात् जो उपशमसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणि में मरण को प्राप्त होता है, वह प्रथम समय में ही सम्यक्त्वमोहनीय पुंज को उदयावलिका में लाकर वेदन करता है, जिससे उपशम सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त नहीं होता है । यानि अपर्याप्त-अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं पाया जाता है। इस प्रकार उपशम सम्यक्त्वमार्गणा में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त यही एक जीवस्थान संभव है, परन्तु अपर्याप्त संज्ञी जीवस्थान घटित नहीं होता है। उत्तर-उपर्युक्त कथन संगत नहीं है। क्योंकि सप्ततिका की चूमि में जहाँ गुणस्थानों में नामकर्म के बंध और उदय स्थानों का विचार किया गया है, वहाँ चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान के उदयस्थानों के विचार के प्रसंग में पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकों की अपेक्षा बताये हैं। उनमें नारकों को क्षायिक और वेदक-क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बताया है, किन्तु देवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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