Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय ।
सब प्रकार के अपर्याप्त जीव अनाहारक उस समय होते हैं, जिस समय वे विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते हैं। लेकिन पर्याप्त संज्ञी को अनाहारक इस अपेक्षा से माना जाता है कि केवली भगवान केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण काययोगी होने के कारण किसी प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करते हैं । ____ 'सण्णी सम्ममि य दोन्नि' अर्यात् संज्ञीमार्गणा तथा क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक इन तीन सम्यक्त्वमार्गणाओं में पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय यह दो जीवस्थान होते हैं । क्योंकि अन्य सब जीवस्थान असंज्ञी होने से संज्ञीमार्गणा में संज्ञीद्विक जीवस्थानों के सिवाय अन्य कोई जीवस्थान संभव नहीं हैं । अतः यही दो जीवस्थान होते हैं तथा क्षायिक आदि सम्यक्त्वत्रिक में यही दो जीवस्थान मानने का कारण यह है कि जो जीव आयु बांधने के बाद क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, वह उस बद्ध आयु के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति में जन्म ले सकता है। इसी अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व अपर्याप्त-अवस्था में माना जाता है । इसी प्रकार
१ उत्पत्तिस्थान की वक्रता से जन्मान्तर ग्रहण करने के लिए जाते हुए किसी
छद्मस्थ जीव को विग्रहगति में एक, दो या तीन विग्रह (घुमाव) करना पड़ते हैं। इसी अपेक्षा से एक, दो या तीन समय तक अनाहारक दशा संभव हैएक द्वौ त्रीवाऽनाहारकः ।
तत्त्वार्थसूत्र २ / ३० २ कार्मण शरीर योगी तृतीयके पंचमे चतुर्थे च । समयत्रये य तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ।।
-प्रशमरति. २७७
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