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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २५
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तब कुछ काल तक अपर्याप्त (करण - अपर्याप्त ) अवस्था में उनको तेजोलेश्या होती है ।' क्योंकि यह सिद्धान्त है
जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जइ ।
अर्थात् जिन लेश्यापरिणामों में जीव का मरण होता है, उन्हीं लेश्यापरिणामों से भवान्तर में उत्पन्न होता है । जिससे बादर एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पति जीवों के अपर्याप्त अवस्था में कुछ समय तक तेजोलेश्या पाये जाने से तेजोलेश्यामार्गणा में पर्याप्तअपर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त रूप तीसरा भी जीवस्थान माना जाता है ।
पद्म और शुक्ल लेश्या के परिणाम संज्ञी के सिवाय दूसरे जीवों में न होने के कारण इन दो लेश्याओं में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय यह दो जीवस्थान हैं ।
'संजमे एक्कं' अर्थात् सामायिक आदि संयममार्गणा के पांच भेदों तथा देशविरतमार्गणा कुल छह भेदों में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप एक ही जीवस्थान होता है । इसका कारण यह है कि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के सिवाय अन्य प्रकार के जीवों में सर्वविरति और देशविरति संयम धारण करने की योग्यता नहीं होती है ।
अनाहारक मार्गणा में आठ जीवस्थान होते हैं— 'अट्ठमणहारे' । जिनके नाम इस प्रकार हैं- अपर्याप्त पर्याप्त संज्ञी तथा अपर्याप्त
ज्योतिष और सौधर्म - ईशान देवलोक में तेजोलेश्या ही होती है ।
१ पुठवीआउ वणस्सइ गब्भे पज्जत्तसंखजीवेसु । सग्गचुयाणंवासो से साप डिसेहिया
ठाणा ॥
- बृहत्संग्रहणी पत्र ७७
पृथ्वी, जल, वनस्पति और संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज पर्याप्तकों में
ही स्वर्ग - च्युत देव पैदा होते हैं, अन्य स्थानों में नहीं ।
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