Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
सण्णी-संज्ञी, सम्मंमि-सम्यक्त्व में, य-और, दोन्नि-दो, सेसयाई-शेष, असंनिम्मि-असंज्ञी में।
गाथार्थ-तेजो आदि तीन लेश्याओं में दो, संयम में एक, अनाहारक में आठ, संज्ञी और सम्यक्त्व में दो और असंज्ञी में शेष रहे जीवस्थान होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में लेश्यामार्गणा के भेद तेजोलेश्या आदि तीन शुभ लेश्याओं तथा संयम, अनाहारक, संज्ञी, सम्यक्त्व मार्गणाओं में संभव जीवस्थानों का निर्देश किया है। ___कृष्णादि तीन भेदों से शेष रहे लेश्या के तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ भेदों में अपर्याप्त-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप दो जीवस्थान होते हैं—'तेउलेसाइसु दोन्नि' । यहाँ अपर्याप्त का अर्थ करणअपर्याप्त ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि लब्धि-अपर्याप्तकों के तो कृष्ण, नील, कापोत ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं तथा गाथा के उत्तरार्ध में आगत 'य-च' शब्द से अनुक्त अर्थ का समुच्चय करके यह आशय ग्रहण करना चाहिये कि करण-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों को भी तेजोलेश्या पाई जाती है । इस दृष्टि से तेजोलेश्या में बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान संभव होने से कुल मिलाकर तीन जीवस्थान प्राप्त होते हैं। ___ बादर एकेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या इस अपेक्षा से मानी जाती है कि जब कोई भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देवलोक के देव' जिनमें तेजोलेश्या संभव है, मरकर बादर पर्याप्त पृथ्वी, जल या वनस्पति काय में उत्पन्न होते हैं
१ किण्हानीलाकाऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया। जोइस सोहम्मीसाणि तेऊलेसा मुणेयव्वा ॥
-बृहत्संग्रहणी पत्र ८१ भवनपति और व्यंतर देवों के कृष्ण आदि चार लेश्यायें होती हैं किन्तु
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