Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २५
१७१
नाम स्त्रीवेद में पाये जाने वालों के भी हैं । यहाँ अपर्याप्त का मतलब करण-अपर्याप्त है, लब्धि-अपर्याप्त नहीं, क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त को तो नपुसकवेद ही होता है। __यद्यपि सिद्धान्त में असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों जीव भेदों में मात्र नपुसक वेद बताया है और यहाँ कार्मग्रंथिकों ने स्त्री और पुरुष ये वेद माने हैं । लेकिन इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । क्योंकि सिद्धान्त का कथन भाववेद की अपेक्षा से और कार्मग्रंथिकों का कथन द्रव्यवेद की अपेक्षा से है । अर्थात् भाव से तो इनमें नपुसकवेद होता है और यहाँ पुरुषवेद और स्त्रीवेद उनमें मात्र स्त्री और पुरुष लिंग का आकार होने के आधार से बताया है।
नपुसकवेद, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कपोतलेश्या, आहारक, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि तथा च शब्द से ग्रहीत असंयम इन तेरह मार्गणाओं में सभी चौदह जीवस्थान होते हैं । इन तेरह मार्गणाओं में सभी जीवस्थान इसलिये माने जाते हैं कि सभी प्रकार के जीवों में इन तेरह मार्गणाओं गत आंतरिक भाव संभव हैं । तथा--
तेउलेसाइसु दोन्नि संजमे एक्कमट्ठमणहारे । सण्णी सम्ममि य दोन्नि सेसयाइं असंनिम्मि ।।२५।।
शब्दार्थ-तेउलेसाइसु-तेजो आदि तीन लेश्याओं मे, दोन्नि-दो, संजमे-संयम में, एक्कं-एक, अट्ठं-आठ, अणहारे—अनाहारक में,
१ तेणं भंते । असन्निपंचेन्दियतिरिक्खजोणिया कि इथिवेयगा, पुरिसवेयगा,
नपुसगवेयगा? गोयमा ! नोइत्थिवेयगा नोपुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा।
-भगवती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org