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पंचसंग्रह (१)
पर्याप्त अपर्याप्त यह दो जीवस्थान पाये जायेंगे । परन्तु यहाँ मनोयोग वालों को वचनयोग और काययोग की एवं वचनयोग वालों को काययोग की गौणता करके उनकी विवक्षा नहीं की है। जिससे मनोयोग में दो, वचनयोग में आठ और काययोग में चार जीवस्थान बतलाये हैं । अपर्याप्त अवस्था में वचनयोग और मनोयोग की विवक्षा उनको ये योग होने की अपेक्षा समझना चाहिये | यहाँ अपर्याप्त शब्द से करण - अपर्याप्त को ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा क्रियात्मक रूप में तो ये दो योग सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के पश्चात् ही होते हैं । तथा
चउचउ पुमित्थिवेए सव्वाणि नपुं ससंपराएसु । किव्हा इतिगाहारगभव्वाभव्वे यमिच्छे य ||२४||
शब्दार्थ - चउचउ - चार-चार पुमित्थिवेए - पुरुष और स्त्रीवेद में, सव्वाणि - सभी, नपुं ससंपराए – नपुंसकवेद और कषायों में, किण्हाइतिगकृष्णादि तीन लेश्या, आहारगभव्वाभव्वे - आहारक, भव्य और अभव्य, यऔर, मिच्छे – मिथ्यात्व में, य - और ।
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गाथार्थ - पुरुष और स्त्री वेद में चार-चार, नपुंसकवेद, कषाय, कृष्णादि तीन लेश्याओं, आहारक, भव्य, अभव्य और मिथ्यात्व में सभी जीवस्थान होते हैं ।
विशेषार्थ -- गाथा में वेद, कषाय, लेश्या, आहारक, भव्य और सम्यक्त्व इन पांच मार्गणा के यथायोग्य भेदों में जीवस्थानों का निर्देश किया है ।
वेदमार्गणा - सर्वप्रथम वेदमार्गणा के तीन भेदों में से स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन दो भेदों में जीवस्थानों को बतलाया है - 'चउ-चउ पुमित्थवेए' -- पुरुषवेद और स्वीवेद में अपर्याप्त पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप चार-चार जीवस्थान होते हैं । अर्थात् पुरुषवेद में प्राप्त चार जीवस्थानों के जो नाम हैं वही चार
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