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पंचसंग्रह (१) परिणामों में विशुद्धि बढ़ती जाती है । अतः आठवें गुणस्थान की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उनके अध्यवसायों की भिन्नतायें आठवें गुणस्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती हैं ।
जिस गुणस्थान में एक साथ चढ़े हुए जीवों के अध्यवसायों में परस्पर तारतम्य हो, उसे निवृत्ति और जिस गुणस्थान में साथ चढ़े हुए जीवों के अध्यवसायों में परस्पर तारतम्य न हो, परन्तु एक का जो अध्यवसाय, वही दूसरे का, वही तीसरे का, इस प्रकार अनन्त जीवों का भी एक समान हो, उसे अनिवृत्तिगुणस्थान कहते हैं। यही आठवें और नौवें गुणस्थान के बीच अन्तर है। ___ इस गुणस्थान में भी आठवें गुणस्थान की तरह स्थितिघात आदि पांचों पदार्थ होते हैं तथा विशुद्धि का विचार दो तरह से किया जाता है-(१) तिर्यग्मुखी विशुद्धि और (२) ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि । इसमें उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि होती है।
१०. सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान-किट्टीरूप ( कृश) किये हुए सूक्ष्मसंपराय अर्थात् लोभकषाय का जिसमें उदय होता है, उसे सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में मात्र संज्वलन लोभकषाय के सूक्ष्म खण्डों का उदय शेष रहता है।
इस गुणस्थानवी जीव भी उपशमक अथवा क्षपक होते हैं। लोभ के सिवाय चारित्रमोहनीय कर्म की दूसरी ऐसी प्रकृति नहीं होती है जिसका उपशमन या क्षपण न हुआ हो। अतः उपशमक लोभकषाय का उपशमन और क्षपक क्षपण करते हैं । यहाँ सूक्ष्म लोभखंडों का उदय होने से यथाख्यातचारित्र के प्रगट होने में कुछ न्यूनता रहती है।
११. उपशांतकषायवीतरागछदमस्थगुणस्थान-आत्मा के ज्ञानादि गुणों को जो आच्छादित करे उसे छद्म कहते हैं अर्थात् ज्ञानावरणादि घातिकर्मों का उदय और उन घातिकर्मों के उदय
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