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पंचसंग्रह (१)
इसका कारण यह है कि यह तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होता है, जिससे अपर्याप्त अवस्थाभावी औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण योग संभव नहीं हैं तथा आहारकद्विक तो लब्धिसंपन्न चौदह पूर्वधर को ही होते हैं और इस गुणस्थान में चौदह पूर्वधर होता नहीं है, जिससे वे भी संभव नहीं हैं । इस प्रकार इन पांचों योगों को कम करने पर शेष चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक और क्रिय काययोग ये दस योग ही मिश्रगुणस्थान में संभव हैं ।
मिश्रगुणस्थान में वैक्रियमिश्रकाययोग न मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है
प्रश्न- अपर्याप्त अवस्थाभावी देव, नारक सम्बन्धी वैक्रियमिश्रकाययोग संभव न हो, परन्तु वैक्रियलब्धिधारी पर्याप्त मनुष्य, तिर्यंचों के मिश्रदृष्टि होने पर वैक्रियशरीर भी संभव है । जिससे वे जब उसे प्रारम्भ करें तब उनको वैक्रियमिश्रकाययोग हो सकता है । इस अपेक्षा दृष्टि से मिश्रगुणस्थान में वैक्रियमिश्रकाययोग मानना चाहिए । फिर उसका निषेध क्यों किया है ?
उत्तर – इस गुणस्थान वाले तथाविधयोग्यता का अभाव होने से वैक्रियलब्धि का उपयोग नहीं करते हैं । इसलिए यहाँ वैक्रियमिश्रयोग नहीं माना है ।"
'ते जुया साहारगेण अपमत्त' अर्थात् पूर्व में कहे गये औदारिक आदि नौ तथा वैक्रिय इन दस योगों के साथ आहारककाययोग
१ आचार्य मलयगिरिसूरि ने इसका विशेष स्पष्टीकरण न करते हुए यही बताया है कि - तेषां वैक्रियाकरणभावतोऽन्यतो वा कुतश्चित्कारणादाचायेणान्यैश्च तन्नाभ्युपगम्यते तन्न सम्यगवगच्छामः तथाविध संप्रदायाभावात् ।
इस गुणस्थान वाले वैक्रियलब्धि न करते हों, इसलिए अथवा
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