Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
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इन गुणस्थानों में संयम और चौदह पूर्व के ज्ञान का अभाव है । इसी कारण मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि — इन तीन गुणस्थानों में आहारकद्विक योगों का निषेध किया है । इनसे शेष रहे तेरह योगों की प्राप्तिक्रम इस प्रकार है
कार्मणयोग विग्रहगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र यह दो योग उत्पत्ति के द्वितीय समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक तथा चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग, वैक्रिय काययोग यह दस योग पर्याप्त अवस्था में होते हैं । इस प्रकार कुछ मिलाकर तेरह योग मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि -- इन तीन गुणस्थानों में पाये जाते हैं ।
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'अपुव्वाइस पंचसु ..' अर्थात् अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह और क्षीणमोह इन पांच गुणस्थानों में नौ-नौ योग होते हैं । वे नौ योग हैं-- 'ओरालो मणवई य' अर्थात् औदारिककाययोग, मनोयोगचतुष्क और वचनयोगचतुष्क । शेष छह योग न होने का कारण यह है कि ये पांचों गुणस्थान विग्रहगति, केवलीसमुद्घात और अपर्याप्त अवस्था में नहीं पाये जाते हैं तथा अप्रमत्तावस्थाभावी हैं । अतः कदाचित् कोई लब्धिसंपन्न इन गुणस्थानों को प्राप्त करे भी तो इन गुणस्थानों में प्रमादजन्य लब्धिप्रयोग संभव नहीं होने से वैक्रियद्विक और आहारकद्विक रूप चार योग नहीं होते हैं तथा औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग अनुक्रम से अपर्याप्त अवस्था एवं विग्रहगति और केवलीसमुद्घात में होते हैं । जिससे इन अपूर्वकरणादि पांच गुणस्थानों में वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण इन छह योगों के सिवाय शेष नौ योग
होते हैं ।
तीसरे
मिश्रगुणस्थान में पूर्वोक्त नौ योगों के साथ 'वेउब्विणाजुया ' - - वैक्रियकाय को मिलाने से दस योग होते हैं और औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण, आहारकद्विक ये पांच योग नहीं होते हैं ।
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