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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
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आदि तीन अघातिकर्मों की स्थिति व पुद्गलपरमाणु आयुकर्म के बराबर हैं, उनको समुद्घात करने की आवश्यकता नहीं होती है । अतएव वे समुद्घात नहीं करते हैं । केवली भगवान द्वारा यह समुद्घातक्रिया की जाती है, इसलिये इसे केवलिसमुद्घात कहते हैं । "
अंतिम समय में परम निर्जरा के कारणभूत तथा लेश्या से रहित अत्यन्त स्थिरता रूप ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं । पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग और बादर वचनयोग को रोकते फिर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकते हैं । अनन्तर उसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। अंत में सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्तिशुक्लध्यान से उस सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं ।
इस प्रकार सयोगिकेवली भगवान अयोगि बन जाते हैं । साथ ही उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिशुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । जिससे उनके आत्मप्रदेश इतने संकुचित घने बन जाते हैं कि वे शरीर के दो तिहाई भाग में समा जाते हैं और बाद में वे केवली भगवान समुच्छिन्नक्रियाऽऽप्रतिपातिशुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और पंच हस्वाक्षर ( अ, इ, उ, ऋ, लृ ) के उच्चारण करने जितने समय में शैलेशीकरण करने के द्वारा चारों अघातिकर्मों का सर्वथा क्षय कर देते हैं और उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे एक समय मात्र में ऋजुगति से ऊपर की ओर सिद्धक्षेत्र में चले जाते हैं । वहाँ परम परमात्मदशा का अनुभव करते हुए अनन्तकाल तक विराजमान रहते हैं ।
उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों का कालप्रमाण इस प्रकार है मिथ्यात्वगुणस्थान - अभव्य का अनादि-अनन्तकाल, भव्य का अनादि-सांतकाल और सम्यक्त्व से पतित का सादि-सांत - जघन्य से
१ केव लिसमुद्घात सम्बन्धी प्रक्रिया का विवरण परिशिष्ट में देखिये ।
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