Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
विरताविरत (देशविरत) में, सम्मे--अविरतसम्यग्दृष्टिगुण स्थान में, नाणतिगं-तीन ज्ञान, सणतिगं-तीन दर्शन, च- और ।
मिस्संमि-मिश्रगुणस्थान में, वामिस्स-व्यामिश्र-मिश्रित, मणनाणजुयं-मनपर्यायज्ञान सहित, पमत्तपुव्वाणं-प्रमत्त है पूर्व में जिनके अर्थात् प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में, केवलियनाणदंसण-केवलज्ञान केवलदर्शन, उवओगा-उपयोग, अजोगिजोगीसु-अयोगि और सयोगि केवली गुणस्थान में।
गाथार्थ-मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान में अज्ञानत्रिक और अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन ये पांच उपयोग तथा अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में तीन ज्ञान और तीन दर्शन इस प्रकार छह उपयोग होते हैं।
मिश्रगुणस्थान में पूर्वोक्त छह उपयोग (अज्ञान से) मिश्रित होते हैं। प्रमत्त आदि क्षीणमोह पर्यन्त सात गुणस्थानों में मनपर्याय सहित सात उपयोग तथा अयोगि व सयोगि केवली गुणस्थान में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं।
विशेषार्थ-उपयोग के बारह भेदों के नाम पूर्व में बताये जा चुके हैं। उनमें से प्रत्येक गुणस्थान में प्राप्त उपयोगों का निर्देश करते हुए कहा है कि 'मिच्छेसासाणे-मिथ्यात्व और सासादन नामक पहले दूसरे दो गुणस्थानों में अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन और अज्ञानत्रिक-मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान इस प्रकार कुल मिलाकर पांच उपयोग होते हैं । आदि के इन दो गुणस्थानों में मति-अज्ञान आदि अज्ञानत्रिक, और चक्षु, अचक्षु दर्शन ये पांच उपयोग मानने का कारण यह है कि इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्वसहचारी मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये सात उपयोग नहीं होते हैं।'
१ सिद्धान्त के मतानुसार यहाँ अवधिदर्शन भी संभव है। इसका स्पष्टीकरण
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