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मार्गणास्थानों में जीवस्थान
तिरियगइए चोट्स नारयसुरनरगईसु दो ठाणा ।
एगिदिए
चउरो विगलर्पाणिदीसु छच्चउरो ॥२२॥
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शब्दार्थ - - तिरियगइए – तिर्यञ्चगति में चोद्दस - चौदह, नारयसुरनरगईसु --नरक, देव और मनुष्य गति में, दो ठाणा - दो जीवस्थान, एगिदिएसु — एकेन्द्रियों में, चउरो-चार, विगलपणदीसु - विकलेन्द्रियों और पंचेन्द्रियों में, छच्चउरो -छह और चार ।
गाथार्थ - - तिर्यंचगति में चौदह, नरक, देव और मनुष्य गति में दो, एकेन्द्रिय में चार, विकलेन्द्रियों में छह और पंचेन्द्रियों में चार जीवस्थान होते हैं ।
पंचसंग्रह (१)
विशेषार्थ - मार्गणास्थानों में जीवस्थानों का निर्देश प्रारम्भ करते हुए गाथा में गति और इन्द्रिय मार्गणा के चार और पांच भेदों में प्राप्त जीवस्थानों को बतलाया है
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' तिरियगइए चोट्स' – तिर्यंचगति में सभी चौदह जीवस्थान होते हैं । क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी भेद तियंचगति में सम्भव होने से जीवस्थानों के सभी चौदह भेद इसमें पाया जाना स्वाभाविक है । इसीलिए तिर्यंचगति में सभी चौदह जीवस्थान माने जाते हैं तथा गतिमार्गणा के नरक, देव और मनुष्य इन तीनों भेदों में से प्रत्येक में 'दो ठाणा' - पर्याप्त - अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप दो-दो जीवस्थान होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
नरक और देव गति में संशीद्विक (अपर्याप्त पर्याप्त ) जीवस्थान मानने का कारण यह है कि नरक और देव गति में वर्तमान कोई जीव असंज्ञी नहीं होते हैं । चाहे वे पर्याप्त हों या अपर्याप्त, किन्तु सभी संज्ञी होते हैं । इसलिए इन दो गतियों में अपर्याप्त, पर्याप्त संज्ञीद्विक जीवस्थान माने हैं ।
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