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पंचसंग्रह (१) केवलीद्विक गुणस्थानों में केवलज्ञान-दर्शन यही दो उपयोग मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है
प्रश्न-अपने-अपने आवरण का देश--आंशिक क्षयोपशम होने और ज्ञानावरण, दर्शनावरण का उदय होने पर जैसे जीवों को मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय ज्ञानोपयोग, अचक्षु, चक्षु, अवधि दर्शनोपयोग होते हैं, तो उसी प्रकार स्व-आवरण का सर्वक्षय होने पर वे केवलज्ञान, केवलदर्शन के समान क्यों नहीं हो जाते हैं ?
उत्तर--ये उपयोग क्षयोपशमिक हैं। क्षायोपशमिक भाव का अभाव नहीं होता है । क्षायोपशमिक उपयोगों का देशावरण क्षय ही संभव है। जैसे कि मेघ से आच्छादित सूर्य का चटाई के छिद्रों में प्रविष्ट प्रकाश घट-पटादि पदार्थों को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार केवलज्ञानावरण से आवृत केवलज्ञान का प्रकाश मति आदि आवरणों के छिद्रों से निकलकर अपने-अपने नाम को धारण करके जीवादि पदार्थों को प्रकाशित करता है और चटाई के नष्ट होने पर जैसे छिद्रों का भी नाश हो जाता है, उसी प्रकार सर्वावरण दूर होने पर क्षयोपशमजनित छिद्रों का भी अपगम हो जाता है । केवलज्ञान के अति निर्मल होने तथा केवलज्ञानावरण का क्षय होने से उसका प्रकाश मंद नहीं होता है । इसीलिए वे उपयोग नहीं होते हैं ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में उपयोगों का कथन समझना चाहिए। अब योगोपयोगमार्गणा अधिकार के विवेचनीय विषयों में से शेष रहे मार्गणास्थानों में जीवस्थानों और गुणस्थानों का निर्देश करने के लिए ग्रंथकार आचार्य पहले मार्गणास्थानों के नाम बतलाते हैं । मार्गणास्थानों के नाम व भेद
गइ इंदिए य काए जोए वेए कसाय नाणे य । संजमदंसणलेसा भव्व सन्नि सम्म आहारे ।।२१।।
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