Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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यागोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-२० जिसका सुगमता से बोध कराने के लिए इन गुणस्थानों के दो वर्ग बनाये हैं। प्रथम वर्ग में छद्मस्थ-अवस्थाभावी प्रमत्तसंयत आदि क्षीणमोह पर्यन्त सात गुणस्थान हैं और द्वितीय वर्ग में निरावरणअवस्था में प्राप्त सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन दो गुणस्थानों का समावेश है।
प्रथम वर्ग के गुणस्थानों में उपयोगों का कथन करने के लिए गाथा में पद दिया है ‘पमत्तपुव्वाणं' अर्थात् पूर्व में पहले से लेकर पांचवें तक जिन पांच गुणस्थानों में उपयोगों का विचार किया जा चुका है, उनसे शेष रहे छद्मस्थभावी प्रमत्तसंयत आदि क्षीणमोह पर्यन्त सात गुणस्थानों में पूर्वोक्त सम्यक्त्वसहचारी तीन ज्ञान
और तीन दर्शन इन छह उपयोगों के साथ सर्वविरतिसहचारी 'मणनाणजुयं'-मनपर्यायज्ञान को मिलाने पर सात उपयोग होते हैं ।
इन सात गुणस्थानों में अज्ञानत्रिक और केवलद्विक इन पांच उपयोगों को नहीं मानने का कारण यह है कि मिथ्यात्व का अभाव होने से मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान यह तीन अज्ञान नहीं पाये जाते हैं तथा अभी घातिकर्मों का क्षय न होने से केवलद्विक-- केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोग भी संभव नहीं हैं । इसीलिए इन पांच को छोड़कर शेष सात उपयोग इनमें समझना चाहिए। तथा
'अजोगिजोगीसु' अर्थात् निरावरण-अवस्था में पाये जाने वाले अयोगि और सयोगि केवली नामक इन दोनों गुणस्थानों में कैवलिक ज्ञान-दर्शन यानि केवलज्ञान और केवलदर्शन यह दो उपयोग होते हैं । घातिकर्मों का क्षय होने से छद्मस्थ-अवस्थाभावी मतिज्ञान आदि सात ज्ञानोपयोग तथा चक्षुदर्शन आदि तीन दर्शनोपयोग कुल दस उपयोग नहीं होते हैं । इसीलिए इन केवलीद्विक गुणस्थानों में केवलज्ञान और केवलदर्शन यह दो उपयोग माने जाते हैं।
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