Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २२
१६५
यहाँ प्रयुक्त अपर्याप्त शब्द करण-अपर्याप्त के लिये समझना चाहिये । क्योंकि देव और नरक गति में लब्धि अपर्याप्त रूप से कोई उत्पन्न नहीं होता है ।
मनुष्यगति में भी यही जो दो जीवस्थान बतलाए हैं, वे नारक और देवों के समान करण-अपर्याप्त और समनस्क - मन सहित की विवक्षा करके समझना चाहिये । क्योंकि नारक और देव तो लब्धिअपर्याप्त होते ही नहीं हैं, वे करण अपर्याप्त होते हैं, लेकिन मनुष्य करण - अपर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त दोनों प्रकार के संभव हैं । अतः लब्धि अपर्याप्त को ग्रहण करके यदि मनुष्यगति में जीवस्थानों का विचार किया जाये तो पूर्वोक्त दो जीवस्थानों के साथ अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, इस तीसरे जीवस्थान को मिलाने पर तीन जीवस्थान संभव हैं ।
मनुष्यगति में अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान मानने का कारण यह है कि मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - गर्भज और संमूच्छिम । गर्भज मनुष्य तो संज्ञी ही होते हैं और वे अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं । लेकिन संमूच्छिम मनुष्य ढाई द्वीप समुद्र में गर्भज मनुष्यों के मल-मूत्र आदि में पैदा होते हैं और जिनकी आयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है एवं अपनी योग्य पर्याप्तियों
पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं । ऐसे संमूच्छिम मनुष्यों की अपेक्षा अपर्याप्त असंज्ञी जीवस्थान को मिलाने पर मनुष्यगति में अपर्याप्त पर्याप्त संज्ञीद्विक और अपर्याप्त असंज्ञी यह तीन जीवस्थान पाये जाते हैं ।"
१ कहिणं भंते । सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ?
गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्त पणयालीसाए जोयण सयसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु, पन्नरससु कम्मभूमीसु, तीसाए अकम्मभूमीसु, छप्पन्नाए अंतरदीवेसु, गब्भवक्कं तियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org