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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २३
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इस प्रकार से गति और इन्द्रिय मार्गणा में जीवस्थानों का विचार करने के पश्चात् अब आगे की गाथा में काय और योग मार्गणा के भेदों में जीवस्थानों का निर्देश करते हैं--
दस तसकाए चउचउ थावरकाएसु जीवठाणाई।
चत्तारि अट्ट दोन्नि य कायवई माणसेसु कमा ।।२३॥ शब्दार्थ-दस-दस, तसकाए-त्रसकाय, चउचउ-चार-चार, थावरकाएसु-स्थावरकाय में, जीवठाणाइंजीवस्थान, चत्तारि-चार, अछआठ, दोन्नि-दो, य-और, कायवई-काय और वचन योग, माणसेसुमनोयोग में, कमा- क्रम से।
गाथार्थ-त्रसकाय में दस, स्थावरकाय में चार-चार और काययोग, वचनयोग और मनोयोग में अनुक्रम से चार, आठ
और दो जीवस्थान होते हैं। विशेषार्थ-कायमार्गणा और योगमार्गणा के उत्तरभेदों में जीवस्थानों के निर्देश का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'दस तसकाए' अर्थात् त्रसकाय में दस जीवस्थान हैं । त्रस नामकर्म के उदय वाले जीवों का त्रस कहते हैं और उस नामकर्म का उदय द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में होता है । अतः जीवस्थानों के चौदह भेदों में से एकेन्द्रिय सम्बन्धी अपर्याप्त, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय इन चार जीवस्थानों को छोड़कर शेष दस जीवस्थान त्रसकाय में होते हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैंअपर्याप्त-पर्याप्त के भेद से प्रत्येक दो-दो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय । इन सबका जोड़ दस होता है।
'चउ-चउ थावरकाएसु' - अर्थात् स्थावरकायमार्गणा में चारचार जीवस्थान जानना चाहिये। ग्रंथकार आचार्य ने विस्तार से स्थावरों के पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति यह पांच भेद न
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