Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पोगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २१
१६३
शब्दार्थ-गइ---गति, इंदिए-इन्द्रिय, य-और, काए-काय, जोए-योग, वेए--वेद, कसाय-कषाय, नाणे-ज्ञान, य-और, संजमदंसणलेसा--संयम, दर्शन और लेश्या, भव्य--भव्य, सन्नि-संज्ञी, सम्म–सम्यक्त्व, आहारे-आहार ।
गाथार्थ-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, संज्ञी, सम्यक्त्व और आहार ये मार्गणा के मूल चौदह भेद हैं।
विशेषार्थ--गाथा में मूल चौदह मार्गणाओं के नाम बताये हैं। यद्यपि पूर्व में इनके उत्तर भेदों का नाम सहित विस्तार से वर्णन किया जा चुका है। लेकिन ग्रंथकार आचार्य ने स्वोपज्ञवृत्ति में मध्यम दृष्टि से इस प्रकार उत्तर भेदों की संख्या बतलाई है--चार, पांच, दो, तीन, तीन, चार, आठ, पांच अथवा एक, चार, छह, दो, दो, दो और दो। जिसका आशय यह हुआ कि गति आदि मूल मार्गणाओं के साथ यथाक्रम से संख्या की योजना करके प्रत्येक मार्गणा के उतने-उतने भेद समझ लेना चाहिए, अर्थात् गतिमार्गणा के चार भेद, इन्द्रियमार्गणा के पांच भेद इत्यादि ।'
अब इन मार्गणास्थानों में जीवस्थानों का विचार करते हैं।
ग्रंथकार आचार्य ने संयममार्गणा के पांच अथवा एक भेद बतलाये हैं। ये कथन अपेक्षा से जानना चाहिए कि यदि संयम को सामान्य से ग्रहण करें तो अन्य भेद संभव नहीं होने से एक भेद होगा और बिना प्रतिपक्ष के शुद्ध संयम के विशेष से सामायिक आदि यथाख्यात पर्यन्त पांच भेद करने पर पांच भेद होंगे । पहले जो संयममार्गणा के सात भेद बतलाये हैं, उनमें शुद्ध संयम भेदों के साथ तत्प्रतिपक्षी अविरत और एकदेशसंयम देशविरत का भी ग्रहण किया है । यह सब कथन संक्षेप व विस्तार की दृष्टि से समझना चाहिये ।
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