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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १९-२०
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अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत नामक चौथे और पांचवें गुणस्थान में 'नाणतिगं दंसगतिगं'- ज्ञानत्रिक- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और दर्शनत्रिक-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
करते हुए टीकाकार आचार्य मलयगिरिसूरि ने बताया है कि---श्रुतविदों ने यहाँ किस अभिप्राय से अवधिदर्शन नहीं माना है, यह हम समझ नहीं सके हैं। क्योंकि भगवतीसूत्र (८/२) में स्पष्ट रूप से कहा है किहे प्रभो ! अवधिदर्शनी अनाकार उपयोगी ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? हे गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी होते हैं तो कोई . तीन ज्ञान वाले होते हैं और कोई चार ज्ञान वाले । जो तीन ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी होते हैं और जो चार ज्ञान वाले हैं वे मति, श्रुत, अवधि और मनपर्याय ज्ञानी होते हैं । किन्तु जो अज्ञानी होते हैं वे नियम से मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं । __इस प्रकार सूत्र में मिथ्यादृष्टि विभंगज्ञानियों को भी अवधिदर्शन स्पष्ट रूप से बताया है । क्योंकि जो अज्ञानी होता है वह मिथ्यादृष्टि ही होता है । जब अवधिज्ञानी सासादनभाव को अथवा मिश्रभाव को प्राप्त करे तब वहाँ भी अवधिदर्शन होता है । अर्थात् जैसे अवधिज्ञानोपयोग के समय अवधिज्ञानी को प्रथम सामान्यरूप अवधिदर्शन होता है, वैसे ही विभंगज्ञानोपयोग के पूर्व विभंग ज्ञानी को भी अवधिदर्शन मानना चाहिये । भगवतीसूत्र का पाठ इस प्रकार है'ओहिदसणअणागारोवउत्ताणं भंते ! किं नाणी अन्नाणी? गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि । जइ नाणी ते अत्थेगइया तिनाणी, अत्थेगइया चउनाणी । जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी,
ओहिणाणी । जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवणाणी । जे अण्णाणि ते नियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगनाणी। दिगम्बर कार्मग्रंथिकों ने भी आदि के दो गुण स्थानों में अज्ञानत्रिक, चक्षु -
दर्शन, अचक्ष दर्शन ये पांच उपयोग माने हैं। Jain Education International
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