________________
पंचसंग्रह (१)
अवस्था न होने से औदारिकमिश्र व कार्मण योग भी नहीं हो सकते हैं।
पांचवें गुणस्थान में बताये गये ग्यारह योगों के साथ आहारक, आहारकमिश्र इन दोनों योगों को मिलाने पर प्रमत्तसंयतगुणस्थान में कुल तेरह योग होते हैं—'आहारदुगेण य पमत्ते' ।'
तेरह योग मानने का कारण यह है कि यह गुणस्थान मनुष्यों में संभव है। अतः मनोयोगचतुष्टय, वचनयोगचतुष्टय और औदारिक कुल नौ योग तो सब मनुष्यों में साधारण हैं तथा इस गुणस्थान में वैक्रिय और आहारक लब्धिसंपन्न मुनियों को वैक्रियद्विक और आहारकद्विक होते हैं। वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र ये दो योग वैक्रियशरीर और आहारकशरीर के प्रारम्भ और परित्याग के समय पाये जाते हैं और उसके सिवाय शेष लब्धिकाल में वैक्रिय और आहारक योग होते हैं। इसलिए प्रमत्तसंयतगुणस्थान में तेरह योग माने हैं। ___ इस प्रकार से अभी तक पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान तक बारह गुणस्थानों में योग का विचार किया गया। अब शेष रहे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में योगों का निर्देश करते हैं
'अज्जोगो अज्जोगी' अर्थात् अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में सूक्ष्म या बादर कोई भी योग नहीं होता है। क्योंकि अयोगि-अवस्था का कारण योग का अभाव ही है। अर्थात् जब अयोगि-अवस्था में योग का अभाव ही है तो फिर योग के भेदों में
१ दिगम्बर कर्मग्रंथों में पांचवें और सातवें गणस्थान में औदारिककाययोग, चार मनोयोग, चार वचनयोग कुल नौ योग तथा छठे गुणस्थान में औदारिककाययोग, आहारकद्विक, चार मनोयोग, चार वचनयोग कुल ग्यारह योग बताये हैं।
-गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा ७०३ For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International