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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
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को मिलाने पर अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में ग्यारह योग पाये जाते हैं। अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में यद्यपि किसी भी लन्धि का प्रयोग नहीं किया जाता है, किन्तु छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान में वैक्रिय या आहारक लब्धि का प्रयोग करने के पश्चात् कोई इस अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में जाये तो दोनों शुद्ध योग अर्थात् वैक्रिय और आहारक योग संभव हैं, मिश्र नहीं। क्योंकि लब्धि करते और छोड़ते समय प्रमत्तदशा होती है, जिससे उस समय मिश्रयोग संभव है। इसीलिए अप्रमतसंयतगुणस्थान में वैक्रिय, आहारक सहित पूर्वोक्त औदारिक, मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क कुल ग्यारह योग माने जाते हैं। ___ 'देसे दुविउविजुया' अर्थात् पूर्व में जो अपूर्वकरण आदि पांच गुणस्थानों में चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिककाययोग कुल नौ योग बताये हैं, उनमें वैक्रिय और वैक्रियमिश्र काययोग को और मिलाने से ग्यारह योग देशविरत नाम पांचवें गुणस्थान में होते हैं।
इस गुणस्थान में वैक्रियद्विक योग मानने का कारण यह है कि पांचवां गुणस्थान मनुष्य और तिर्यचों में होता है और यदि वे वैक्रियलब्धिसंपन्न हों तो वैक्रियशरीर बना सकते हैं । तब उत्तरवैक्रियशरीर बनाते समय वैक्रियमिश्र और बनाने के पश्चात् वैक्रिय योग होगा। किन्तु आहारकद्विक तथा औदारिकमिश्र और कार्मण योग न होने का कारण यह है आहारकद्विक पूर्ण संयमसापेक्ष हैं, किन्तु देशविरतगुणस्थान में पूर्ण संयम नहीं है तथा अपर्याप्त
अन्य किसी कारण से ग्रंथकर्ता आचार्य तथा और दूसरे आचार्यों ने यहाँ वैक्रिय मिश्र नहीं माना है। उसका वास्तविक कारण तथाविधसंप्रदाय का अभाव होने से हम नहीं जान सके हैं।
गोम्मटसार जीवकांड गाथा ७०३ में भी मिश्रगुणस्थान में वैक्रियमिश्रयोग नहीं बताया है।
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