Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
१४५ शुद्धि प्राप्त करके उपशम या क्षपक श्रेणी मांडने वाला होता है, वह इस अपूर्वकरणगुणस्थान में आता है । यद्यपि दोनों श्रेणियों का प्रारम्भ नौवें गुणस्थान से होता है, किन्तु उनकी आधारशिला यह आठवां गुणस्थान है । अर्थात् आठवें गुणस्थान में उपशमन या क्षपण की योग्यता प्राप्त होती है और श्रेणी का प्रारम्भ नौवें गुणस्थान से होता है।
९ अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान- जिसमें समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसायों में तारतम्य न हो और बादर (स्थूल) संपराय (कषाय) का उदय होता है, उसे अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है और एक अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसायस्थान इस गुणस्थान के होते हैं और वे प्रथम समय से लेकर उत्तरोतर अनन्तगुणी विशुद्धि वाले हैं । अर्थात् पहले समय में जो अध्यवसाय होते हैं, उससे दूसरे समय में अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं, यावत् चरम समय पर्यन्त इसी प्रकार से जानना चाहिये।
नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं(१) उपशमक और (२) क्षपक । चारित्रमोहनीय की उपशमना करने वाले उपशमक और क्षय करने वाले क्षपक कहलाते हैं । - यद्यपि आठवें और नौवें गुणस्थान में अध्यवसायों की विशुद्धि होती रहती है, फिर भी इन दोनों की अपनी-अपनी विशेषता है । जैसे कि आठवें गुणस्थान में समसमयवर्ती कालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय शुद्धि की तंरतमता से असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं, किन्तु नौवें गुणस्थान में समानशुद्धि के कारण समसमयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों का एक ही वर्ग होता है। पूर्व-पूर्व गुणस्थान से उत्तर-उत्तर के गूणस्थान में कषायों के अंश कम-कम होते जाने से कषायों की न्यूनता के अनुसार जीवों के
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