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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
१४३ सर्वसावध व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं वे संयत (मुनि) हैं। लेकिन संज्वलनकषाय का उदय रहने से प्रमाद का सेवन करते हैं तब तक वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं और उनके स्वरूपविशेष को प्रमत्तसंयतगुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थानवर्ती जीव सावद्यकर्मों का यहाँ तक त्याग करते हैं कि पूर्वोक्त संवासानुमति का भी सेवन नहीं करते हैं। ___ यहाँ देशविरतगुणस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणी विशुद्धि होने से विशुद्धि का प्रकर्ष और अविशुद्धि का अपकर्ष होता है और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणहीन विशुद्धि होने से विशुद्धि का अपकर्ष और अविशुद्धि का उत्कर्ष होता है । इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों के लिए भी समझना चाहिए। ___ इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणकषाय का क्षयोपशम होने से जीव सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय चारित्र प्राप्त करता है। परिहारविशुद्धि संयमी भी हो सकता है, किन्तु उसकी विवक्षा नहीं की है । क्योंकि इस चारित्र का ग्रहण तीर्थंकर अथवा जिसने तीर्थ कर से यह चारित्र ग्रहण किया है, उसके पास होता है तथा चौथे आरे में उत्पन्न प्रथम संहनन और साड़े नौ पूर्व के ज्ञानी को यह चारित्र होता है, अन्य को नहीं होता है । अतएव अल्प काल और अल्प ग्रहण करने वाले होने से छठे सातवें गुणस्थान में इस चारित्र के होने पर भी विवक्षा नहीं की जाती है।
७. अप्रमत्तसंयतगुणस्थान-जो संयत (मुनि) संज्वलनकषाय का मंद उदय होने से निद्रा, विकथा, कषाय आदि प्रमादों का सेवन नहीं करते हैं, वे अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं और उनके स्वरूपविशेष को अप्रमत्तसंयतगुणस्थान कहते हैं । __ छठे प्रमत्तसंयत और सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में इतना अंतर है कि सातवें गुणस्थान में थोड़ा-सा भी प्रमाद नहीं होने से
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