Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) व्रतों में अतिचारादि संभव नहीं हैं किन्तु छठे गुणस्थान में प्रमाद होने से व्रतों में अतिचार लगने की संभावना है।
प्रमाद के सेवन से ही आत्मा गुणों की शुद्धि से गिरती है। इसलिये इस गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानों में वर्तमान मुनि अपने स्वरूप में अप्रमत्त ही रहते हैं ।
८. अपूर्वकरणगुणस्थान-अपूर्व-पूर्व में नहीं हुए अथवा अन्य गुणस्थानों के साथ तुलना न की जा सके उसे अपूर्व कहते हैं और करण स्थितिघातादि क्रिया अथवा परिणाम । इसका यह अर्थ हुआ कि पूर्व में नहीं हुए अथवा अन्य गुणस्थानों के साथ जिनकी तुलना न की जा सके ऐसे स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्व स्थितिबंध' ये पांच पदार्थ जिसके अन्दर होते हैं, अथवा पूर्व में नहीं हुए ऐसे विशेषशुद्धि वाले अपूर्व परिणाम जहाँ होते हैं, उसे अपूर्वकरण कहते हैं और इस प्रकार के परिणाम में वर्तमान जीवों के स्वरूपविशेष को अपूर्वकरणगुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान का अपरनाम निवृत्तिबादरगुणस्थान भी है। अध्यवसाय, परिणाम, निवृत्ति ये समानार्थक शब्द हैं । अतः जिस गुणस्थान में अप्रमत्त आत्मा की अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण इन तीनों बादर कषायों की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था विशेष को निवृत्तिबादरगुणस्थान कहते हैं। ___ अन्तर्मुहुर्त में छठा और अन्तर्मुहूर्त में सातवां गुणस्थान होता रहता हैं । परन्तु इस प्रकार के स्पर्श से जो संयत विशेष प्रकार की
१ इन स्थितघात आदि पांच पदार्थों की विशेष व्याख्या उपशमश्रेणि के
विचारप्रसंग में की जायेगी। २ अपूर्वकरण में उत्तरोत्तर अपूर्व स्थितिबंध और अध्यवसायों की वृद्धि
विषयक विचार का सारांश परिशिष्ट में दिया गया है ।
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