Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
क्योंकि मनुष्य, पशु आदि विषयक प्रतीति, श्रद्धा की अपेक्षा और अंत में निगोदावस्था में भी तथाप्रकार के स्पर्श की अव्यक्त प्रतीति की अपेक्षा से प्रत्येक आत्मा में सम्यग्दृष्टित्व माना जा सकता है। अतएव आंशिक गुण की अपेक्षा से प्रत्येक आत्मा को सम्यग्दृष्टि कहना चाहिये, मिथ्यादृष्टि नहीं।
उत्तर-यह ठीक है कि किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि यथार्थ है, किन्तु इतने मात्र से उसे सम्यग्दृष्टि नहीं कह सकते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि द्वादशांग के अर्थ को मानने पर भी सूत्रोक्त एक अक्षर की जो श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास नहीं करता है, वह मिथ्या दृष्टि है । अतः यदि सूत्र ही प्रमाण नहीं तो भगवान अरिहंतभाषित जीव-अजीव आदि वस्तुविषयक यथार्थ तत्त्वनिर्णय कैसे हो सकता है ? लेकिन सम्यक्त्वी जीव की यह विशेषता होती है कि उसे सर्वज्ञकथन पर अखण्ड विश्वास होता है, किन्तु मिथ्यात्वी को नहीं होता है। इसीलिये मिथ्यात्वी को सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता है।
प्रश्न-अरिहन्त-भाषित सिद्धान्त के अर्थ को मानने पर भी तद्गत एक अक्षर को न माने तो वह मिथ्या दृष्टि है। परन्तु न्याय से तो उसे मिश्रदृष्टि कहना चाहिये । क्योंकि वह भगवान अरिहंतभाषित संपूर्ण अर्थ को मानता है,मात्र कुछ एक अर्थ को नहीं मानता है । अतः श्रद्धा-अश्रद्धा की मिश्रता होने से मिश्रदृष्टि कहना चाहिए, न कि मिथ्यादृष्टि ।
उत्तर-श्रद्धा-अश्रद्धा की मिश्रता से मिश्रदृष्टि कहना चाहिये, मिथ्यादृष्टि नहीं, यह कथन वस्तुस्वरूप का अज्ञान होने से असत् है। क्योंकि वीतरागभाषित जीव-अजीव आदि सभी पदार्थों को जिनप्रणीत होने से यथार्थरूप से श्रद्धा करे तब वह सम्यग्दृष्टि है, लेकिन जब जीव-अजीव आदि सभी पदार्थों को अथवा उसके अमुक अंश की
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